कॉम्पिटिशन एक्साम्स की बेहतर तयारी के लिए अभी करियर टुटोरिअल ऍप गूगल प्ले स्टोर से डाउनलोड करें।
दर्शन
आधार ग्रंथ
प्रतिपादक
सांख्य दर्शन
सांख्य सूत्र
कपिल मुनि
योग दर्शन
योग सूत्र
पतंजलि
न्याय दर्शन
न्याय सूत्र
गौतम
वैशेषिक दर्शन
वैशेषिक सूत्र
कणाद/उलूक
पूर्व मीमांशा
पूर्व मीमांशा
सूत्र जैमिनी
उत्तर मीमांशा
ब्रह्म सूत्र
वेदव्यास/वादरायण
धार्मिक आन्दोलन के कारण
उत्तरवैदिक काल से वर्णव्यवस्था का जटिल हो जाना। अब वर्णव्यवस्था कर्म के आधार पर नहीं बल्कि जन्म के आधार पर हो गयी थी। धार्मिक जीवन आडंबरपूर्ण, यज्ञ एवं बलि प्रधान बन चुका था।
उत्तरवैदिक काल के अंत तक धार्मिक कर्मकाण्डों एवं पुरोहितों के प्रभुत्व के विरूद्ध विरोध की भावना प्रकट होने लगी थी।
उत्तर-पूर्वी भारत में कृषि व्यवस्था का विकास भी धार्मिक आन्दोलन की शुरूआत का एक मुख्य कारण था।
जैन धर्म
जैन धर्म के प्रमुख़ तीर्थकर –
ऋषभदेव- इन्हें ‘आदिनाथ‘ भी कहा जाता है
अजितनाथ
सम्भवनाथ
अभिनंदन जी
सुमतिनाथ जी
पद्मप्रभु जी
सुपार्श्वनाथ जी
चंदाप्रभु जी
सुविधिनाथ- इन्हें ‘पुष्पदन्त‘ भी कहा जाता है
शीतलनाथ जी
श्रेयांसनाथ
वासुपूज्य जी
विमलनाथ जी
अनंतनाथ जी
धर्मनाथ जी
शांतिनाथ
कुंथुनाथ
अरनाथ जी
मल्लिनाथ जी
मुनिसुव्रत जी
नमिनाथ जी
अरिष्टनेमि जी – इन्हें ‘नेमिनाथ‘ भी कहा जाता है। जैन मान्यता में ये नारायण श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे।
पार्श्वनाथ
वर्धमान महावीर – इन्हें वर्धमान, सन्मति, वीर, अतिवीर भी कहा जाता है।
स्थापना
जैन धर्म की स्थापना का श्रेय जैनियों के प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव को जाता है।
जैन धर्म को संगठित करने एवं विकसित करने का श्रेय वर्धमान महावीर को दिया जाता है।
जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव या आदिनाथ थे।
जैनधर्म के तीर्थकर एवं प्रतीक चिन्ह
तीर्थकर
प्रतीक चिन्ह
आदिनाथ/ऋषभदेव
वृषण/सांड/बैल
अजितनाथ
हाथि
संभवनाथ
घोड़ा
मल्लिनाथ
कलश
नेमिनाथ
नील कमल
अरिष्टनेमी
शंख
पाश्र्वनाथ
सांप(सर्प)
महावीर स्वामी
सिंह
आदिनाथ/ऋषभदेव
ऋषभदेव का उल्लेख ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, श्रीमद् भागवत, विष्णुपुराण, एवं भागवत पुराण में हुआ है।
ऋषभदेव का जन्म अयोध्या में हुआ था एवं इनकी मृत्यु अट्ठवय पर्वत अर्थात कैलाश पर्वत पर हुई थी।
ऋषभदेव का प्रतीक चिन्ह सांड है
पाश्र्वनाथ
जन्म – वाराणसी में हुआ।
पिता – वाराणसी के राजा अश्वसेन
माता – वामादेवी
पत्नी – प्रभावति
ज्ञान प्राप्ति – समवेत पर्वत पर गए
शरीर त्याग – पारसनाथ पहाड़ी पर किया
पाश्र्वनाथ के अनुयायी निग्रंथ कहलाते थे।
महावीर स्वामी
ये जैनधर्म के 24 वें तीर्थकर एवं जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक थे।
जन्म – 540 ई.पू.
जन्मस्थल – कुण्डग्राम
पिता – सिद्धार्थ (वज्जि संघ के ज्ञातृक कुल में)
माता – त्रिशला (लिच्छवी वंश के शासक चेटक की बहन)
पत्नि – यशोदा
पुत्री – प्रियदर्शना (अनोज्जा),दामाद – जामाली (प्रथम शिष्य एवं प्रथम विरोधी)
बचपन का नाम – वर्धमान महावीर
ज्ञान प्राप्ति स्थल – जृम्भिक गांव, ऋजुपालिका नदी के तट पर साल के वृक्ष के नीचे
प्रथम उपदेश – राजगृह में (वितुलाचल पर्वत पर बैठकर)
जैन धर्म के पंच महावृत
अहिंसा – जीव की हिंसा न करना
सत्य – सदा सत्य बोलना
अपरिग्रह – संपत्ति एकत्रित नहीं करना
अस्तेय – चोरी न करना
ब्रह्मचर्य – स्त्री से संपर्क न बनाना (महावीर स्वामी ने जोड़ा था)
जैन धर्म के त्रिरत्न
सम्यक ज्ञान – सत्य तथा असत्य का ज्ञान ही सम्यक ज्ञान।
सम्यक दर्शन – जैन तीर्थकरों तथा उपदेशों में दृढ़ आस्था तथा श्रद्धा रखना/सत्य में विश्वास।
सम्यक चरित्र – इंद्रियों एवं कर्मो पर पूर्ण नियंत्रण।
जैन धर्म की मान्यताएं
जैन धर्म में अहिंसा पर विशेष बल दिया गया है।
जैन धर्म में कृषि एवं युद्ध में भाग लेने पर प्रतिबंध लगाया गया है।
जैन धर्म पुनर्जन्म व कर्मवाद में विश्वास करता है।
जैन धर्म के अनुसार कर्मफल ही जन्म तथा मृत्यु का कारण है।
जैन धर्म में वर्ण व्यवस्था की निंदा नहीं की गयी है।
जैन धर्म संसार की वास्तविकता को स्वीकार करता है।
सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर को स्वीकार नहीं करता है
जैन धर्म में देवताओं के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है, परन्तु उनका स्थान जिन से नीचे रखा गया है।
जैन धर्म का दर्शन
जैन धर्म का दर्शन ‘अनेकान्तवाद’, ‘स्यादवाद’ एवं ‘अनिश्वरवादिता’ है। जैन धर्म में ‘सृष्टि की नित्यता’ को दर्शन के रूप में शामिल किया गया है।
जैन धर्म ईश्वर एवं वेदों की सत्ता को अस्वीकार करता है।
जैन धर्म मोक्ष एवं आत्मा को स्वीकार करता है।
नोट – स्यादवाद को अनेकान्तवाद या सप्तभंगी सिद्धांत भी कहा जाता है।
अनेकान्तवाद: जिस प्रकार जीव भिन्न-भिन्न होते हैं उसी प्रकार उनमें आत्माएं भी भिन्न-भिन्न होती है। इसके अनुसार आत्मा को परिवर्तनशील मानता है।
स्यादवाद: इसके अनुसार तत्व ज्ञान को पृथक-पृथक दृष्टिकोण से देखा जाता है क्योंकि प्रत्येक काल में जीव का ज्ञान एक नहीं हो सकता है। ज्ञान की विभिन्नताएं सात प्रकार से हो सकती है। अतः यह दर्शन सप्तभंगीनय भी कहा जाता है।
अनिश्वरवादिता एवं सृष्टि की नित्यता: जैन ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे। वे ईश्वर को विश्व का निर्माणकत्र्ता और नियन्ता भी नहीं मानते थे। उनके अनुसार सृष्टि आदि काल से चलती आ रही है और उनन्त काल तक चलती रहेगी। यह शाश्वत नियम के आधार पर कार्य करती है।
जैन धर्म की मौलिक शिक्षाएं
जैन धर्म में संसार को दुःख मूलक माना गया है। व्यक्ति को सांसारिक जीवन की तृष्णाएं घेरे रहती है। यही दुःख मूल कारण है।
संसार त्याग तथा संन्यास मार्ग ही व्यक्ति को सच्चे मार्ग पर ले जा सकती है।
संसार के सभी प्राणी अपने-अपने संचित कर्मो के अनुसार ही कर्मफल भोगते हैं।
कर्म से छुटकारा पाकर ही व्यक्ति निर्वाण की ओर अग्रसर होता है।
पुद्गल
जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक जीव में विधमान आत्मा स्वभाविक रूप से सर्व-शक्तिमान एवं सर्वज्ञाता होती है। किन्तु पुदगल के कारण यह बंधन में पड़ जाती है। पुद्गल एक कर्म पदार्थ है।
जब आत्मा में पुदगल घुल-मिल जाता है तो आत्मा में एक प्रकार का रंग उत्पन्न करता है। यह रंग लेस्य कहा जाता है। लेस्य 6 रंगों का होता है।
काला, नीला, धूसर – बुरे चरित्र का सूचक
पीला, लाल, सफेद – अच्छे चरित्र का सूचक
पुदगल से मुक्ति
पुदगल से मुक्ति पाने के लिए त्रिरत्न (सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन, सम्यक चरित्र) का अनुशीलन अनिवार्य है।
कॉम्पिटिशन एक्साम्स की बेहतर तयारी के लिए अभी करियर टुटोरिअल ऍप गूगल प्ले स्टोर से डाउनलोड करें।
जब कर्म (पुदगल) का अवशेष समाप्त हो जाता है। तब मोक्ष की प्राप्ति होती है।
जैन संघ
महावीर स्वामी ने पावापुरी में जैन संघ की स्थापना की।
कॉम्पिटिशन एक्साम्स की बेहतर तयारी के लिए अभी करियर टुटोरिअल ऍप गूगल प्ले स्टोर से डाउनलोड करें।
संघ के अध्यक्ष (क्रमानुसार) – महावरी स्वामी, सुधर्मन – जम्बुस्वामी – अन्तिम केवलिन।
संघ की संरचना
तीर्थकर – अवतार पुरूष।
अर्हंत – जो निर्वाण के बहुत करीब थे।
आचार्य – जैन संन्यासी समूह के प्रधान।
उपाध्यक्ष – जैन धर्म के अध्यापक/संत।
भिक्षु-त्रिक्षुणी – ये संन्यासी जीवन व्यतीत करते थे।
श्रावक-श्राविका : ये गृहस्थ होकर भी संघ के सदस्य थे।
निष्क्रमण – जैन संघ में प्रवेश करने के लिए एक विधि संस्कार।
जैन संघ में ऊंच-नीच एवं अमीर-गरीब का कोई भेद नहीं था।
चन्दना – यह भिक्षुणियों के संघ की अध्यक्षा थी।
चेलना – यह श्राविकाओं संघ की अध्यक्षा थी।
श्वेताम्बर एवं दिगम्बर में अन्तर
श्वेताम्बर
दिगम्बर
मोक्ष प्राप्ति के लिए वस्त्र त्याग आवश्यक नहीं
मोक्ष के लिए वस्त्र त्याग आवश्यक
स्त्रियां मोक्ष की अधिकारी हैं।
स्त्रियों को निर्वाण संभव नहीं
कैवल्य के बाद भी भोजन की आवश्यकता
कैवल्य के बाद भोजन की आवश्यकता नहीं
श्वेताम्बर मतानुसार महावीर स्वामी विवाहित थे।
दिगम्बर मतानुसार महावीर स्वामी अविवाहित थे।
19वीं तीर्थर मल्लिनाथ स्त्री थी।
19वें तीर्थकर मल्लिनाथ पुरूष थे।
अंग , उपांग, प्रकीर्ण, छेद सूत्र, मूल सूत्र आदि को मानते थे।