बीज अंकुरण से जरावस्था के मध्य होने वाले बदलाव को सामूहिक रूप से परिवर्धन कहा जाता है। एक पादप कोशिका के विकासात्मक प्रक्रम का अनुक्रम पौधे पर्यावरण के प्रभाव के कारण जीवन के अनेक चरणों में चित्र आरेख के अनुसार अलग अलग पथो का अनुसरण करते है, ताकि विभिन्न प्रकार की संरचनाओ का गठन कर सके। पौधों की इस घटना को सुघट्यता (प्लास्टीसिटी) कहा जाता है।
उदाहरण – कपास, धनिया आदि पादपों में पत्तियों का आकार किशोरावस्था व परिपक्व अवस्था में अलग-अलग होता है अर्थात प्रवस्था के अनुसार संरचना बदलती रहती है। विषमपर्णता सुघट्यता का एक उत्तम उदाहरण है।
पौधों में परिवर्धन आन्तरिक व बाहरी कारको से नियंत्रित किया जाता है।
पादप वृद्धि नियामक विविध रासायनिक संगठनो वाले साधारण व लघु अणु होते है, जैसे –
पादप वृद्धि नियामक को पादप हार्मोन भी कहा जाता है, इनको पौधे में क्रियाशीलता के आधार पर दो समूहों में विभाजित जा सकता है –
ऐसे पादप वृद्धि नियामक जो पादप की वृद्धि को बढ़ाते है, पादप वृद्धि हार्मोन कहलाते है। जैसे – कोशिका विभाजन, कोशिका प्रसार, प्रतिमान संरचना, पुष्पन, फलीकरण, बीज निर्माण आदि को प्रेरित करते है। उदाहरण – ऑक्सिन, जिवबेरेलिस, साइटोकाइनिन इत्यादि।
ऐसे पादप हार्मोन जो पादप वृद्धि को अवरुद्ध करते है, पादप वृद्धि निरोधक हार्मोन कहलाते है। जैसे – पत्तियों का पीला पड़ जाना, पुष्पों व फलो का झड़ना, कोशिका विभाजन धीमा होना आदि क्रियाओं को प्रेरित करते है। उदाहरण – एसिसिक अम्ल इत्यादि।
ऑक्सिन शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के auxins शब्द से हुई है जिसका अर्थ है – to grow । इन्हें सबसे पहले मानव मूत्र से अलग किया गया था। इन्डोल एसिटिक अम्ल व इसके समान गुण वाले सभी प्राकृतिक व कृत्रिम संश्लेषित पदार्थ को ऑक्सिन कहा जाता है।
याबुता तथा हायाशी ने इसे कवको से प्राप्त कर इसे जिवबेरेलींन नाम दिया। विभिन्न कवकों एवं उच्च पादपों में अब तक सौ से अधिक प्रकार के जिवबेरेलिन मिल चुके। इनको GA1 , GA2 , GA3 ………….. GA100 आदि नामो से जाना जाता है।
लिथम व मिलर ने इस हार्मोन को मक्का से विमुक्त कर जिएटिन नाम रखा, बाद में लिथम में इसको साइटोकाइनिनन नाम दिया।
एथीलिन (इथाइलिन) एक प्रकार का प्राकृतिक गैसीय हार्मोन है। पौधों के लगभग सभी भागों में एथीलिन पाया जाता है।
यह एक पादप की वृद्धि को अवरुद्ध करने वाला हार्मोन होता है।
पुष्पन पर दीप्तकालिता के प्रभाव का अध्ययन सर्वप्रथम 1920 में दो अमेरिकी वैज्ञानिक गार्नर व एलार्ड के द्वारा किया गया। उनके अनुसार पुष्पन को प्रभावित करने वाला क्रांतिक कारक प्रकाश काल की अवधि है।
दिन की वह लम्बाई जो पौधों में पुष्पन के लिए अनुकूल हो तथा दिन की आपेक्षिक लम्बाई अथवा आपेक्षिक दीप्तिकाल के प्रति पौधे की अनुक्रिया को दीप्तिकालिता कहा जाता है।
प्रकाश तथा अंधकार की अवधियों के अंतरालो के प्रति पौधों की अनुक्रिया को दीप्तिकालिता कहा जाता है।
दीप्तिकालिता अनुक्रिया के आधार पर पौधो के तीन प्रकार होते है –
ऐसे पौधे जो एक निश्चित क्रान्तिक दीप्तिकाल से कम अवधि में प्रकाश उपलब्ध होने पर पुष्पन किया करते है। ऐसे पादपों को लघु दिवस पादप कहा जाता है। उदाहरण – डहेलिया आदि।
ऐसे पादप जिनमें पुष्पन के लिए क्रांतिक दीप्तिकाल से दीर्घ अवधि का दीप्तिकाल आवश्यक होता है, उन पादपों को दीर्घ दिवस पादप कहते है। उदाहरण – पालक, मूली, चुकंदर आदि।
वे पौधे जो लगभग सभी संभव दीप्तिकालो में पुष्पीकरण कर सकते है, ऐसे पादप दिवस उदासीन पादप कहलाते है। उदाहरण – टमाटर, ककड़ी व अन्य कुकर बिटेसी कुल के पादप।
कुछ पौधों में पुष्पन गुणात्मक व मात्रात्मक तौर पर कम तापक्रम में अनावृत होने पर आधारित होता है। इस विशेषता को ही बसंतीकरण कहा जाता है।
दूसरे शब्दों में – द्रुतशीतन उपचार द्वारा पुष्पन की योग्यता के उपार्जन को वसंतीकरण कहा जाता है। यदि पानी सोखे हुए बीजों या नावोद्भिद को निम्न ताप पर उपचारित किया जाता है तो इसके प्रभाव से उनकी वृद्धि त्वरित / तीव्र हो जाती है तथा उनमें पुष्पन भी तीव्र होने लगता है। वसंतीकरण का अध्ययन गेहूँ, चावल व कपास में किया गया है।