- संस्थापक – श्रीगुप्त
- शासनकाल – 240 ई. – 550 ई.
- अंतिम शासक – विष्णुगुप्त -3
प्रमुख गुप्त काल शासक-
- श्रीगुप्त (240 – 280 ई.)
- घटोत्कच गुप्त (280-319ई.)
- चन्द्रगुप्त (320 ई. से 335 ई.)
- समन्द्रगुप्त ( 335 ई.)
- रामगुप्त
- चन्द्रगुप्त 2 विक्रमादित्य (375 – 415 ई. )
- कुमार गुप्त (415 – 455ई.)
- स्कन्दगुप्त (455 – 467ई.)
- भानुगुप्त (510 ई. )
- विष्णुगुप्त -3 (540 – 550ई.)
गुप्त काल के साक्ष्य
साहित्यिक साक्ष्य | अभिलेखीय साक्ष्य |
पुराण – विष्णु पुराण, वायु पुराण एवं ब्राह्मण पुराण | समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति |
देवी चन्द्रगुप्तम (विशाखदत्त कृत) | कमारगुप्त का विलसड अभिलेख |
कालीदास की रचनाएं | स्कन्दन गुप्त का भितरी अभिलेख |
विदेशी यात्री: फाह्यान, ह्नेनसाग आदि | प्रभावती गुप्त का पूना ताम्रपत्र |
गुप्त कौन थे ? वैश्य या ब्राह्मण ?
वैश्य होने के पक्ष में तर्क – रोमिला थापर, रामशरण शर्मा आदि इतिहासकारों ने गुप्तों को वैश्य माना है।
कारण: स्मृतियों के अनुसार नाम के पीछे गुप्त उत्तरांश लगाना वैश्यों की एक विशेषता है। गुप्त वैश्यों का एक गोत्र भी है। इसका एक कारण यह भी माना जाता है कि गुप्त वंश के संस्थापक का नाम केवल गुप्त प्राप्त होता है। श्री आदर भाव से जोड़ा गया उपसर्ग है। इस प्रकार गुप्त वंश का संस्थापक श्री गुप्त माना जाता है।
ब्राह्मण होने के पक्ष में तर्क – राय चौधरी ने गुप्तों को ब्राह्मण वंशी माना है।
कारण: पुष्यमित्र शुंग षट्टमहिषी धारणी में गुप्त गोत्र को ब्राह्मण वंशी बताया गया है। इसका एक कारण गुप्त शासकों द्वारा अपनी पुत्रियों का विवाह ब्राह्मणों के साथ किया जैसे – चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक शासक द्वितीय से एवं भानु गुप्त ने अपनी बहनों का विवाह भी ब्राह्मणों से किया। चूंकि गुप्त काल में एवं मौर्योत्तर काल में जाति प्रथा प्रबल थी तथा अन्तर्जातीय विवाह अमान्य था।इस प्रकार गुप्तों की पुत्रियों के ब्राह्मणों से विवाह उन्हें ब्राह्मण वंशी मानने को प्रेरित करते हैं। परन्तु इस समय अनुलोम विवाह (उच्चवंश का वर, निम्न वंश की कन्या) प्रचलित था। ये पुनः इस तथ्य का उलझा देती है।
अतः ये कौन थे इसका कोई प्रमाणिक साक्ष्य नहीं है।
गुप्तवंशीय शासक
श्रीगुप्त (240 – 280 ई)
प्रभावती गुप्त का पूना स्थित ताम्रपत्र अभिलेख के अनुसार श्री गुप्त को गुप्त वंश का आदिराज/आदिपुरूष माना गया है। अतः गुप्त वंश की स्थापना का श्रेय श्री गुप्त को प्राप्त है। श्री गुप्त ने महाराज की उपाधि धारण की थी।
घटोत्कच्च गुप्त (280-319)
- यह श्री गुप्त का उत्तराधिकारी था।
- घटोत्कच्छ ने भी महाराज की उपाधि धारण की थी।
नोट – श्री गुप्त एवं घटोत्कच गुप्त को संपूर्ण स्वतंत्र शासक नहीं माना गया है क्योंकि इन दोनो ने महाराज की उपाधि धारण की थी और उस समय महाराज की उपाधि सामन्तों को प्राप्त होती थी तथा पूर्ण स्वतंत्र शासक महाराजाधिराज की उपाधि धारण करते थे। चूंकि चंन्द्रगुप्त-1 ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी इसी कारण चन्द्रगुप्त प्रथम को गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक माना गया है।
चन्द्रगुप्त प्रथम (319ई. – 334ई.)
- यह गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक था।
- इसने गुप्त वंश में महाराजाधिराज की उपाधि धारण की।
- गुप्त वंश में सर्वप्रथम सोने के सिक्के चलाने वाला शासक यही था
- चन्द्र गुप्त प्रथम ने ही गुप्त संवत् की स्थापना की थी।
- चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया।
समुद्रगुप्त (335ई. – 380ई.)
- समुद्रगुप्त को विसेट स्मिथ ने अपनी पुस्तक अर्ली हिस्ट्री ऑफ़ इण्डिया में भारत का नेपोलियन कहा है।
- उपाधियां – पराक्रमांक, अप्रतिरथ एवं व्याघ्रपराक्रम।
समुद्रगुप्त का विजय अभियान (5 चरण)
- प्रथम चरण – अहिच्छत्र, चम्पावती एवं विदिशा सहित उत्तर भारत के 9 राज्य। यह आर्यावर्त राज्य प्रसभोद्वरण कहलाया।
- द्वितीय चरण – पंजाब, सीमावर्ती राज्य एवं नेपाल।
- तृतीय चरण – विंध्यक्षेत्र पर विजय।
- चतुर्थ चरण – पल्लव, कोसल, कोट्टूर, महाकान्तर, कांची, वेंगी आदि सहित कुल 12 राज्यों पर विजय प्राप्त की। दक्षिण भारत पर यह विजय धर्म विजय कहलायी
- पांचवां चरण – उत्तर पश्चिम भारत के कुछ विदेशी राज्यों पर विजय।
विजय अभियान को पूरा करने के बाद अश्वमेधयज्ञ करवाया एवं अश्वमेध पराक्रम की उपाधि ली। समुद्रगुप्त को उसके सिक्कों पर वीणा बजाते हुए दिखाया गया है। समुद्र गुप्त को कविराज की उपाधि प्रदान की गयी है
चन्द्रगुप्त द्वितीय/चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य/देवगुप्त
- उपाधियां – विक्रमांक, विक्रमादित्य, परमभागवत।
- अन्य नाम – देवगुप्त, देवराज, देवश्री।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में गुप्त साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर था।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय का साम्राज्य पश्चिम में गुजरात से पूर्व में बंगाल तक एवं उत्तर में हिमालय से लेकर नर्मदा नदी तक था।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शक क्षत्रप रूद्रसिंह-3 को पराजित किया इस उपलक्ष में व्याघ्र शैली के चांदी के सिक्के चलाए एवं शकारि की उपाधि धारण की।
- गुप्तकाल में चांदी के सिक्के चलाने वाला प्रथम शासक यही था।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय ने ही विक्रम संवत् की स्थापना की।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में चीनी यात्री फाह्यान आया था।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के राजदरबार में 9 रत्न थे।
नो रत्न –
- धन्वन्तरी – चिकित्सा क्षेत्र
- घाटखर्पर – कवि
- कालिदास – लेखक
- वाराहमिहिर – खगोल शास्त्री
- अमरसिंह
- कक्षपनक – ज्योतिष
- वररूचि – संस्कृत व्याकरण
- वेतालभट्ट – मन्त्रशास्त्र
- शंकु – शिल्प शास्त्र
चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन काल कला एवं साहित्य का स्वर्णकाल माना जाता है।
कुमारगुप्त
- कुमारगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था।
- उपाधि – महेन्द्रादित्य, श्री महेन्द्र, गुप्तकुल व्योमशशि, अश्वेमेध महेन्द्र।
- कुमार गुप्त की मुद्राओं पर गरूड के स्थान पर मयूर आकृति अंकित है।
- कुमारगुप्त प्रथम के शासन में नालंदा विश्वविधालय की स्थापना करवायी।
- कुमारगुप्त के सिक्कों पर कार्तिकेयन का अंकन मिलता है।
स्कन्दगुप्त (455 – 467)
- उपाधि – क्रमादित्य
- अन्यनाम – देवराय
- स्कन्दगुप्त के शासन काल में प्रथम हूण आक्रमण हुआ जिसे स्कंदगुप्त ने विफल कर दिया।
- स्कन्दगुप्त ने अपनी राजधानी अयोध्या में स्थानांतरित की थी।
स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारी
पुरूपुप्त – कुमारगुप्त द्वितीय – बुद्धगुप्त – नरसिंहगुप्त – भानुगुप्त।
भानुगुप्त (510 ई. )
- इसकी जानकारी एरण अभिलेख से प्राप्त होती है।
- भानुगुप्त का मित्र गोपराज, भानुगुप्त की ओर से हूणों से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ तथा गोपराज की पत्नि आग में जलकर सती हो गयी।
- एरण अभिलेख में सतीप्रथा का पहला अभिलेखीय साक्ष्य मिलता है।
विष्णुगुप्त -3 (540 – 550)
यह गुप्तवंश का अंतिम शासक था एवं इसके बाद गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया था।
रामगुप्त प्रकरण
गुप्त शासकों के रूप में रामगुप्त का नाम देवीचन्द्रगुप्तम, हर्षचरित, काव्यमीमांशा आदि ग्रंथों से प्राप्त होता है। यह समुद्रगुप्त के पश्चात् गद्दी पर बैठा परन्तु यह कायर शासक था। इसके समय में शक आक्रमण बढ़ गए थे जिसे इसने अपनी पत्नी ध्रुवदेवी को शाकाधिपति के लिए सौंपकर राज्य में शांति बहाल करने की कोशिश की। परन्तु रामगुप्त के छोटे भाई चन्द्रगुप्त द्वितीय को इस बात की भनक लग गयी तथा स्त्री के वेश में ध्रुवदेवी के स्थान पर शक शिविर में गया तथा मौका पाकर शकाधिपति की हत्या कर दी। इसके बाद इसने अपने कायर भाई की भी हत्या कर दी तथा स्वंय गद्दी पर बैठा एवं ध्रुवदेवी से विवाह कर लिया।
गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण
- अयोग्य तथा निर्बल उत्तराधिकारी
- शासनक व्यवस्था का संघात्मक/विकेन्द्रित स्वरूप
- उच्च पदों पर नियुक्ति योग्यता के आधार पर न होकर आनुवांशिक।
- प्रांतीय शासकों को विशेषाधिकार प्रदान करना।
- बाह्म आक्रमण।
गुप्तकालीन प्रशासन
- राजत्व का दैवीय उत्पत्ति सिद्धांत लोकप्रिय था।
- राजपद वंशानुगत था परन्तु ज्येष्ठाधिकार की अटल प्रथा का अभाव था।
- गुप्तकाल प्रशासन विकेन्द्रीकरण व्यवस्था पर आधारित अथवा संघात्मक था। प्रमाण: सामन्तों/प्रांत अधिकारियों को प्राप्त विशेषाधिकार।
- राजा न्याय व्यवस्था का प्रधान होता था परन्तु विधि निर्माण का अधिकार सीमित था।
- राजा का मुख्य कार्य जनता की एवं राज्य की सुरक्षा, वर्ण व्यवस्था कायम रखना तथा धर्म की रक्षा करना था।
केन्द्रीय प्रशासन एवं प्रांतीय प्रशासन
राजा
- प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी
- कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं सैन्य प्रधान।
- विधि निर्माण का अधिकार नहीं।
देश/राष्ट्र
- प्रशासन की सबसे बड़ी इकाई
- इसका शासक गोप्ता होता था
भुक्ति/प्रांत
- देश भुक्तियों में बंटा हुआ होता था।
- यहां कुमारमात्यों को नियुक्त किया जाता था।
- यहां उपरिक नामक अधिकारी होता था।
विषय/जिला
- प्रांतों का विभाजन विषय/जिलों में होता था।
- इसका सर्वोच्च अधिकारी विषयपति था
- विषयपति की सहायता श्रेष्ठि, सार्थवाह, कुलिक, कायस्थ करते थे
विधि/तहसील
विषय विधियों में बंटा होता था
पेठ
पेठ विधि से छोटी इकाई थी। गांवों का संघ।
ग्राम/गांव
- गुप्त कालीन प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गांव थी।
- इसका प्रधान महत्तर/मुखिया या ग्राम वृद्ध होता था।
गुप्त साम्राज्य के प्रशासनिक अधिकारी
- महाबलाधिकृत – सेनापति
- महादण्डनायक – न्यायाधीश
- दण्डपाशिक – पुलिश विभाग का सर्वोच्च अधिकारी
- सन्धि विग्रहिक – युद्ध तथा संधि से संबंधित विदेश मंत्र
- विनयस्थिति – शिक्षा एवं धार्मिक मामलों का प्रधान
- महाअक्षपटलिक – लेखा विभाग का सर्वोच्च अधिकारी
- चौरोदरनिक – गुप्तचर विभाग का प्रधान।
- अग्रहारिक – दान विभाग का प्रधान
- भाण्डागाराधिकृत – राजकोष अधिकारी
गुप्तकालीन अर्थव्यवस्था
कृषि
गुप्तकालीन अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि था।
भमि के प्रकार-
- वास्तु भूमि – वास करने योग्य
- अप्रहत – बिना जोती गयी भूमि
- सदबल भूमि – घास मैदान वाली
- औदिक – दलदल भूमि
राजस्व – भू राजस्व ही राज्य की आय का मुख्य साधन था। भू राजस्व कुल आय का 1/6 हिस्सा होता था।
विभिन्न प्रकार के कर
- धान्य – अनाज में राजा का हिस्सा
- भट्टकर – पुलिस कर
- चाट – लुटेरों से बचाने के लिए दिया जाने वाला कर
- प्रणय – अनिवार्य कर
- विष्टि – बेगार कर
- शुल्क – सीमा कर या बिक्री कर
- बलि – यह एक धार्मिक कर था।
- उपरि कर – यह उन रैयतों पर लगाया जताा था जो भूमि के स्वामी नहीं थे
- भू राजस्व नकद तथा अनाज दोनों के रूप में वसूला जाता था।
- हिरण्य सामुदायिक – नकद भू राजस्व वसूलने वाले।
- औदरांगिक – अनाज के रूप में भू राजस्व वसूलने वाले।
गुप्तकालीन व्यापार
- रोमन व्यापार का पतन
- द. पू. एशिया एवं चीन के साथ व्यापार में वृद्धि।
- आंतरिक व्यापार में कमी।
गुप्तकालीन समाज
गुप्तकालीन समाज की विशेषताएं
- गुप्तकालीन समाज ब्राह्मणवादी था।
- विभिन्न पेशेवर समूहों का जाति में ढलना
- पुनरूत्थान के कारण उच्चवर्णो के विशेषाधिकारों का बल
- वैश्यों की सामाजिक दशा में तुलनात्मक रूप में गिरावट
- शूद्रों की सामाजिक दशा में सुधार
दास प्रथा
गुप्त काल में दास प्रथा प्रचलित थी तथा इस काल में दासों को मुख्यतः घरेलू कार्यो में लगाया जाता था। कारण – जनजातियों के आत्मसातीकरण के कारण श्रमिकों की पूर्ति, शूद्रों को कृषि कार्यो में लगाया जाना एवं भूमि दानों द्वारा दास प्रथा को कमजोर कर देना।
स्त्रियों की दशा
- स्त्रियों की सामाजिक दशा में तुलनात्मक रूप से गिरावट आयी।
- पर्दा प्रथा का प्रचलन हो चुका था।
- बाल विवाह प्रथा एवं बहु विवाह प्रथा व्याप्त हो चुकी थी।
- सती प्रथा का साक्ष्य एरण अभिलेख से प्राप्त हुआ है।
- देवदासी प्रथा द्वारा मंदिर के पुजारियों द्वारा यौन शोषण बढ़ गया था।
- गणिकाओं एवं वैश्यावृति में वृद्धि हुई।
कुछ सकारात्मक परिवर्तन
- स्त्रियों को सम्पत्ति संबंधि अधिकार दिए गए।
- पत्नि एवं पुत्रियों को सम्पति का उत्तराधिकारी बनाया गया।
- स्त्रियां प्राकृत भाषा का प्रयोग कर सकती थी।
गुप्तकाल में धार्मिक स्थिति
गुप्तकालीन धार्मिक व्यवस्था का मुख्य लक्षण – जटिलता एवं विविधता है। एक ओर ब्राह्मणवादी पुनरूत्थान के कारण यहां यज्ञ की पद्धति पुनर्जीवित हो रही थी वहीं जनजातीय तत्वों के प्रभावस्वरूप भक्ति की अवधारणा को प्रोत्साहन मिल रहा था। मंदिरों एवं मूर्तियों का निर्माण हुआ। अवतार वाद की अवधारणा का उदय हुआ तथा ब्राह्मण धर्म के अन्तर्गत वैष्णव एवं शैव भक्ति का विकास हुआ। नव हिन्दु धर्म की शुरूआत भी इसी काल में हुई। इसके चलते वैष्णव धर्म सबसे प्रधान बन गया। शैव सम्प्रदाय को भी संरक्षण मिल गया।
भगवान हरिहर की मूर्ति
- यह शैव एवं वैष्णव धर्म के समन्वय को दर्शाती है।
- देवताओं के साथ देवियों को इसी काल में जोड़ा गया।
- त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) की संकल्पना इसी काल में विकसित हुई।
- ब्राह्मणवाद के उत्थान के कारण धार्मिक कर्मकाण्डों में पुनः वृद्धि हुई।
- मूर्ति पूजा का प्रभाव एवं भक्ति का प्रभाव बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म पर भी पड़ा तथा बौद्ध एवं जैन धर्म में भी मूर्ति बनना शुरू हुआ।
- मन्दिरों का निर्माण, भक्ति, कर्मकाण्ड, मूर्तिपूजा इस काल की प्रमुख विशेषता थी।
गुप्तकालीन स्थापत्य
- गुप्तकाल को भारतीय कला एवं संस्कृति का स्वर्णयुग माना जाता है।
- गुप्तकाल के प्रमुख मंदिर-
- देवगढ़ का दशावतार मंदिर – ललितपुर (उत्तर प्रदेश)
- तिगवा का विष्णु मंदिर – जबलपुर (मध्य प्रदेश)
- एरण का विष्णु मंदिर – सागर (मध्य प्रदेश)
- भूमरा का शिव मंदिर – सतना (मध्यप्रदेश)
- नचना कुठार का पार्वती मंदिर – पन्ना (मध्य प्रदेश)
- भीतर गांव का कृष्ण मंदिर – कानपुर (उत्तर प्रदेश)
- नागोद का शिव मंदिर – सतना (मध्यप्रदेश)
गुप्तकालीन शिक्षा एवं साहित्य
गुप्तकालीन साहित्य की विशेषताएं
- अधिकांश रचनाएं प्रेमप्रधान एवं सुखान्त होती थी।
- रचनाओं में उच्च वर्ण के पात्र संस्कृत बोलते थे। शूद्र एवं महिलाएं प्राकृत भाषा बोलती थी।
- नोट – सेक्सपियर एवं कालिदास की रचनाओं में मुख्य अंतर प्रेमगाथा के अंत का होता है। कालिदास की रचनाएं सुखान्त वाली हैं। जबकि सेक्सपियन की रचनाओं का अंत सुखद नहीं होता।
- महाभारत एवं रामायण का अंतिम रूप से संकलन इसी काल में हुआ।
गुप्तकालीन रचनाएं
- मालविकाग्निमित्रम – कालिदास – अग्निमित्र एवं मालविका की प्रणयकथा
- अभिज्ञान शाकुन्तलम – कालिदास – दुष्यन्त एवं शकुन्तला की प्रेमकथा।
- विक्रमोवर्षीयम – कालिदास – सम्राट पुरूरवा एवं उप्सरा उर्वसी की प्रेमकथा।
- मुद्राराक्षसम् – विशाखदत्त – चन्द्रगुप्त मौर्य कालीन विश्लेषण व कथा।
- देवीचन्द्रगुप्तम् – विशाखदत्त – चन्द्रगुप्त-2 द्वारा शक राजा का वध एवं ध्रुवदेवी (रामगुप्त की पत्नी) से विवाह।
- मृच्छकटिकम् – शूद्रक – चारूदत्त एवं वसन्त सेना की प्रेमगाथा।
- स्वप्नवासदत्तम् – भास – महाराजा उदयन एवं वासवदत्ता की प्रेम कथा।
अन्य रचनाएं
- कालिदास – ऋतुसंहार, मेघदूतम, कुमार सम्भवम, मालविकाग्निमित्रम, रघवंशम, अभिज्ञानशाकुन्तलम, विक्रमोर्वशीयम।
- दशकुमारचरित्र – दण्डिन, काव्यदर्शन-दण्डिन, अमरकोष -अमरसिंह
- ब्रह्मसिद्धांत – आर्यभट्ट, सूर्य-सिद्धांत – आर्यभट्ट, आर्यभट्टीयम – आर्यभट्ट।
- पंचतंत्र – विष्णुशर्मा, कामसूत्र – वात्स्यायन
- चरक संहिता – चरक, मृच्छकटिकम – शूद्रक