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भूमी की सबसे ऊपर की परत को जो पेड़-पौधों के उगने के लिए आवश्यक खनिज आदि प्रदान करती है, मृदा या मिट्टी कहते है। अलग अलग स्थानों पर अलग अलग प्रकार की मिट्टी पाई जाती है इनकी भिन्नता का सम्बन्ध वहां की चट्टानों की सरंचना, धरातलीय स्वरूप, जलवायु, वनस्पति आदि से होता है।
मिट्टी के अध्ययन के विज्ञान को मृदा विज्ञान यानी पेडोलोजी कहा जाता है भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् ने भारत की मिट्टियों का विभाजन 8 प्रकार में किया है –
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भारत की मिट्टियों में सामान्यतः नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की कमी होती है। इसके लिए कार्बनिक खादों व उर्वरकों का उपयोग किया जाता है। चक्रीय कृषि, मिश्रित कृषि आदि से मिट्टी की गुणवत्ता में वृद्धि होती है।
देश में मृदा अपरदन व उसके दुष्परिणामो पर नियंत्रण हेतु सन् 1953 में केन्द्रीय मृदा संरक्षण बोर् का गठन किया गया, जिसका कार्य राष्ट्रीय स्तर पर मृदा संरक्षण के कार्यक्रमों का संचालन करना था।
मरूस्थल की समस्या के अध्ययन के लिए जोधपुर में कजरी की स्थापना की गई है।
19 फरवरी, 2015 को राजस्थान के सूरतगढ़ से मिट्टी की खराब गुणवत्ता की जांच करने और कृषि उत्पादकता बढ़ाने हेतु ‘ मृदा स्वास्थ्य कार् ’ योजना की शुरूआत की गई। इस योजना पर 75 प्रतिशत राशि केंद्र सरकार वहन करेगी। इस योजना का ध्येय वाक्य ‘ स्वस्थ धरा, खेत हरा ’ है। प्रत्येक 3 वर्ष पर कार्ड का नवीनीकरण होगा।
तथ्य
मिट्टी का रंग मैग्नीशियम की अधिकता के कारण पीला होता है।
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मालाबार तट पर ‘केरल के पश्च जल’ में पाई जाने वाली पीट मृदा को ‘कारी‘ कहा जाता है
फलों को शीघ्र पकाने में ‘फाॅस्फोरस ’ की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
वायुमंडल के नत्रजन का स्थिरीकरण करने वाली दलहनी फसलें चना, मटर, मूंग आदि है
परत अपरदन को किसान की मौत भी कहते है।
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चम्बल नदी क्षेत्र अवनालिका अपरदन से सर्वाधिक प्रभावित है।