स्टडी मटेरियल

राजस्थान में चित्रकला

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राजस्थान में चित्रकला की कई शैलियां है।

उदयपुर शैली

राजस्थानी चित्रकला की मूल शैली है।
उदयपुर शैली का प्रारम्भिक विकास राणा कुम्भा के काल में हुआ।
उदयपुर शैली का स्वर्णकाल जगत सिंह प्रथम का काल रहा। महाराणा जगत सिंह के समय उदयपुर के राजमहलों में “चितेरों री ओवरी” नामक कला विद्यालय खोला गया जिसे “तस्वीरां रो कारखानों”भी कहा जाता है।
विष्णु शर्मा द्वारा रचित पंचतन्त्र नामक ग्रन्थ में पशु-पक्षियों की कहानियों के माध्यम से मानव जीवन के सिद्वान्तों को समझाया गया है।
पंचतन्त्र का फारसी अनुवाद “कलिला दमना” है, जो एक रूपात्मक कहानी है। इसमें राजा(शेर) तथा उसके दो मंत्रियों(गीदड़) कलिला व दमना का वर्णन किया गया है।
उदयपुर शैली में कलिला और दमना नाम से चित्र चित्रित किए गए थे।
प्रमुख चित्रकार – मनोहर लाल, साहिबदीन कृपा राम, उमरा।
चित्रों के विषय – आर्श रामायण, गीत गोविन्द, भ्रमर गीत।
प्रमुख रंग – लाल, पीला
वृक्ष, पशु, पक्षी – कदम्ब, हाथी,चकौर
पुरुष – गठीला शरीर, छोटा कद, लम्बी मूछें, पगड़ी, कमर में पताका, कान में मोती।
स्त्री – मछली जैसी आँखे , लम्बी नाक, पारदर्शी औढनी।

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नाथद्वारा शैली

चित्रकार – नारायण, घीसाराम, चतुर्भुज, उदयराम, खूबीराम
विषय – कृष्णलीला, श्रीनाथ जी के विग्रह, राधा कृष्ण यशोदा के चित्र।
प्रमुख रंग – पीला, हरा।
पुरुष – पुष्ट शरीर, तिलक
स्त्री – तिरछी चकोर की आंखे, उरोजों का गोल उभार, मांसल शरीर, मंगल सूत्र
विशेष – पिछवाई चित्रण (मंदिर में मूर्ति के पीछे चित्र बनाना)

देवगढ़ शैली

चित्रकार – बैजनाथ, चोखा, कँवला
विषय – शिकार के दृश्य, अन्तः पुर, राजसी ठाट-बाट, सवारियां।
विशेष – देवगढ़ शैली में जयपुर, जोधपुर,उदयपुर तीनों सहेलियों का प्रभाव है।

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चावंड शैली

चित्रकार – नसीरुद्दीन (निसरदी)
विषय – प्रताप के शाशनकाल में शुरू में एवं अमर सिंह के समय नसीरुद्दीन ने रागमाला ग्रन्थ चित्रित किया।
विशेष – आकाश को सर्पिला कार व् लहरिया दार तरंगित बादलों के रूप में प्रदर्शित किया।

जोधपुर शैली

इस शैली पर मुगल शैली का प्रभाव हैं, जसवंत सिंह प्रथम का इस शैली का स्वर्णकाल काल रहा है।
इस शैली में चित्र राजकीय विषय के ऊपर बनाये गये है। इस शैली में अजंता शैली की परम्परा का निर्वाह किया गया है। मारवाड शैली के पूर्ण विकास का काल 16 वीं से 17 वीं सदी रहा है। यह शैली बाद में मुग़ल शैली सेइतनी से इतना प्रभावित हुई की अपनी सत्ता भी खो दी। मुग़ल शैली के प्रभाव के कारण इसमें विलासिता पूर्ण चित्र भी बनाये गये। यह शैली अंत में सामाजिक जीवन के प्रभाव में भी आई।

राव मालदेव (1531 से 1562 ई.)

मारवाड़ की कला एवं संस्कृति का सम्पूर्ण श्रेय राव मालदेव को ही जाता है, इससे पूर्व यह शैली मेवाड़ से पूर्णत: प्रभावित थी।
राव मालदेव समय चोखेलाव महल में मार्शल जैसे चित्र बनाये गये। जिसमे बल्लियों पर राम-रावण युद्ध के बारे में चित्रण किया गया जिसका मूल उद्देश्य पौराणिक गाथाओं का यशोगान करना था।
इनके समय मारवाड़ एक स्वतंत्र चित्र शैली के रूप में उभरा

चित्रकार – नारायण दास, शिवदास, अमरदास, किशन दास, देवदास भाटी, वीरजी,रतनजी भाटी।
विषय – ढोल मारु, नाथ चरित्र, सूरसागर, रागमाला सैट, पंचतंत्र, कामसूत्र।
प्रमुख रंग – पीला
विशेष – आकाश को सर्पिला कार व् लहरिया दार तरंगित बादलों के रूप में प्रदर्शित किया।

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बीकानेर शैली

प्रमुख चित्र – कृष्ण लीला, भागवत गीता, भागवत पुराण, रागमाला , बारहमासा, रसिक प्रिया, रागरागिनी, शिकार महफ़िल, सामंती वैभव के दृश्य
पुरुष आकृति – दाढ़ी-मूंछों युक्त वीरता का भाव दिखाती हुई उग्र आकृति, बड़ी पगड़ी, फैला हुआ जामा, पीठ पर ढाल व हाथ में भाला लिए हुए।
स्त्री आकृति – इकहरी तन्वंगी नायिका, धनुषाकार भृकुटी, लम्बी नाक, उन्नत ग्रीवा एवं पतले अधर, तंग चोली, घेरदार घाघरा, मोतियों के आभूषण व पारदर्शी ओढ़नी
उस्ता कला – बीकानेर शैली के उद्भव का श्रेय उस्ता कलाकारों को जाता है। इसका जन्म बीकानेर में हुआ, तथा यहाँ के चित्रकार अपने चित्र पर अपना नाम व तिथि अंकित करते थे।
राजा अनूपसिंह – इनके समय में बीकानेर शैली का स्वर्ण काल देखने को मिलता है। इनके समय के प्रमुख चित्रकार अलीरजा, हसन व रामलाल थे।

किशनगढ़ शैली

किशनगढ़ शैली को प्रकाश में लाने का श्रेय एरिक डिक्सन व डॉ. फैयाज अली को जाता है। एरिक डिक्सन व कार्ल खंडालवाड़ा की अंग्रेजी पुस्तकों में किशनगढ़ शैली के चित्रों के सम्मोहन और उनकी शैलीगत विशिष्टताओं को विश्लेषित किया गया है।
पुरुष आकृति – समुन्नत ललाट, पतले अधर, लम्बी आजानुबाहें, छरहरे पुरुष, लम्बी ग्रीवा, मादक भाव से युक्त नृत्य, नुकीली चिबुक, कमर में दुपट्टा, पेंच बंधी पगड़ी, लम्बा जामा
स्त्री आकृति – लम्बी नाक, पंखुड़ियों के समान अधर, लम्बे बाल, लम्बी व सुराहीदार ग्रीवा, पतली भृकुटी (बत्तख, हंस, सारस, बगुला) के चित्र
किशनगढ़ शैली में गुलाबी व सफेद रंग की प्रधानता है, इस शैली में मुख्यतः केले के वृक्ष को चित्रित किया गया है।

बणी-ठणी

राजा सावंत सिंह (नगरीदास) की प्रेयसी थी, चित्रकारों ने इन्हें राधा के रूप में चित्रित किया।
कलाकार मोरध्वज निहालचन्द ने बणी-ठणी को राधा के रूप में चित्रित किया।
किशनगढ़ शैली में इस चित्र में नारी सोंदर्य को परिभाषित किया गया है।
बणी-ठणी का निर्माण 1778 में हुआ तथा इसका आकर 48.8 सेमी. × 36.6 सेमी. है।
यह चित्र आज भी किशनगढ़ महाराज के संग्रालय में मौजूद है तथा इसका एक मौलिक स्वरूप अल्बर्ट हॉल में रखा हुआ है जो सोंदर्य में मोनालिसा से भी कहीं आगे है।
एरिक डिक्सन ने बणी-ठणी भारतीय मोनालिसा की संज्ञा दीबणी-ठणी का चित्र 5 मई, 1973 में डाक टिकिटों पर भी जारी किया गया
वेसरि – किशनगढ़ शैली में प्रयुक्त नाक का प्रमुख आभूषण।
चांदनी रात की संगोष्ठी – चित्रकार अमरचंद द्वारा सावंत सिंह के समय बनाया गया चित्र।

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जयपुर (ढूंढाड़) शैली

मछली के समान व मादक नेत्रों वाले स्त्री चित्र, कमर तक फैले बाल
इस शैली में हरे रंग की प्रधानता है।
प्रमुख चित्रकार – साहिबराम, सालिगराम, लक्ष्मण राम, साहिबराम
साहिबराम ने महाराजा ईश्वरसिंह का आदमकद चित्र बनाया
शिवनारायण जी – तेल चित्र बनाने वाले प्रसिद्ध कलाकार
प्रमुख चित्र – बिहारी सतसई, गोवर्धन धारण, टोडी रागिनी, कृष्ण लीला, साधारण जन-जीवन, रास मण्डल, महाभारत, रामायण, महाराजा सवाई जगतसिंह की हवेली का भित्ति चित्र ,पुण्डरीक जी की हवेली का भित्ति चित्र।
जयपुर शैली में मुख्यतः पीपल के वृक्ष को दर्शाया गया है।
जयपुर शैली में पक्षी में मोर की अधिक प्रधानता है।

अलवर शैली

राजा प्रतापसिंह – अलवर शैली के जन्म दाता
प्रमुख चित्रकार – डालचंद, सालिगराम, बलदेव, गुलामअली, सालगा
योगासन अलवर शैली का प्रमुख विषय है।
मूलचंद हाथी दांत बनाने वाले प्रसिद्ध कलाकार थे।
बसलो चित्रण (बोर्डर का चित्र) – इस चित्र शैली के तवायफों (वेश्याओं) के अधिक चित्र बने।
महाराज शिवदान सिंह ने कामशास्त्र के चित्र बनवाये।

कोटा शैली (हाड़ोती शैली)

महारावल रामसिंह व राजा उम्मेदसिंह कोटा शैली के आश्रयदाता थे।
रामसिंह ने कोटा शैली को स्वतंत्र अस्तित्व प्रदान किया।
प्रमुख चित्र – कृष्ण लीला, राग-रागिनियाँ, बारहमासा, दरबारी दृश्य, आखेट दृश्य
प्रमुख चित्रकार – गोविन्दराम, डालूराम, लच्छीराम, नूर मोहम्मद।
कोटा शैली में प्रमुखत: पशु-पक्षी में शेर व बत्तख का चित्रण मिलता है।
कोटा शैली का सर्वाधिक सर्वश्रेष्ठ उदाहरण ‘आखेट दृश्य’ है।
कोटा शैली में मुख्यतः नीले रंग की प्रधानता है।
कोटा शैली में मुख्यतः खजूर के वृक्ष को दर्शाया है।
कोटा शैली पर वल्लभ सम्प्रदाय का प्रभाव देखने को मिलता है।
महाराव रामसिंघ के समय बूंदी शैली से स्वतंत्र कोटा शैली का उद्भव हुआ।

बूंदी शैली

राव उम्मेदसिंह बूंदी शैली राजस्थान की विचारधारा का प्रारंभिक केंद्र था राव उम्मेदसिंह के समय बूंदी शैली का सर्वाधिक विकास हुआ। इस शैली का राव उम्मेदसिंह द्वारा जंगली सूअर का शिकार करते हुए एक चित्र प्रसिद्ध है जिसका निर्माण 1750 ई में हुआ। इस शैली में शिकार के चित्र हरे रंग में बनाये गये है।
प्रमुख चित्र – पशु-पक्षी के चित्र, फल-फूलों के चित्र, रागमाला (सर्वाधिक प्रमुख चित्र), दरबार, घुड़दौड़, हाथियों की लड़ाई, बसंत रागिनी, बारहमासा, वासुकसज्जा नायिका।
पुरुष आकृति – पतला शरीर, बड़ी मूछें, झुकी पगड़ी।
स्त्री आकृति -आम के पत्तों जैसी आँखे, लाल चुनरी, लम्बी बाहें।
बूंदी शाली में लाल व पीले रंगों का प्रयोग सर्वाधिक किया गया है।
इस शैली में प्रमुखत: खजूर के वृक्ष को चित्रित किया गया है।
वर्षा में नाचता हुआ मोर राजस्थान की विशेषता है तथा यह क्षेत्र इसके लिए प्रसिद्ध है।
बूंदी शैली मुख्यतः मेवाड़ शैली से प्रभावित थी।
प्रमुख चित्रकार – राजा रामसिंह, राव गोपीनाथ, छत्रसाल और बिशनसिंह आदि ने बूंदी शैली को विशेष प्रोत्साहन दिया
बूंदी शैली में मुख्यतः बत्तख, हिरण व शेर जैसे पशुओं को चित्रित किया गया है।

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लोकचित्रण

भित्ति चित्रण

-> महलों, मंदिरों, राजप्रासादों, हवेलियों, की दीवारों पर विविध प्रकार से चित्र बनाने की कला। भित्ति चित्र बनाने वाले चेजारे कहलाते है। शेखावटी की हवेलियां भित्ति चित्रों के लिया प्रसिद्द है।

मांडणा

-> शुभ अवसरों पर घर के आँगन में सफ़ेद खड़िया या गेरू द्वारा बनाये गए चित्रों को कहते है। बाड़मेर में मांडणों में मोर का विशिष्ट अंकन किया जाता है एवं नीले भूरे रंग में मांडने बनाये जाते है।

फड़ चित्रण

-> किसी देवी देवता की कपडे पर चित्रित कथा को फाड् कहते है।
पाबूजी की फड़ राजस्थान की सबसे लोकप्रिय फड़ है, जो नायक जाती के भील भोपों द्वारा बाँची जाती है।

देवनारायण जी की फड़

-> राजस्थान की सबसे प्राचीन एवं लम्बी फड़ है। इसका वाचन जंतर वैश्य के साथ गुर्जर भोंपे करते है।

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पिछवाई चित्रण

-> नथवारा शैली का चित्रण, श्रीनाथ जी की मूर्ति के पीछे कृष्ण भगवन की बाल लीला के चित्र उकेरे जाते है। नरोत्तम नारायण को पिछवाई चित्रण के लिए 1981 में राष्ट्रपति पुरस्कार मिला।