मॉडल शब्द के कई प्रयोगो में से एक ऐसा प्रयोग है जो अवधारणा को एक प्रतिनिधित्व या एक योजना के साथ जोड़ता है। दूसरी ओर, परमाणु वह है जो परमाणु से जुड़ा हुआ है (रासायनिक तत्व की सबसे छोटी मात्रा जो अविभाज्य है और जिसका अपना अस्तित्व है)।
इन मॉडलों का मुख्य उद्देश्य यह है कि परमाणु के तर्क को सार करके और इसका स्थानांतरण एक स्कीमा में करके इस सामग्री के स्तर का अध्ययन को सरल कर दिया जाता है।
परमाणु का एक प्रकार का परिमाणित मॉडल होता है, जिसको उस तरीके की व्याख्या करने के लिए विकसित किया गया था, जिसमें इलेक्ट्रॉन नाभिक के चारों ओर स्थिर कक्षाओं का पता लगाने के लिए प्रबंधन करते हैं। यह कार्यात्मक मॉडल परमाणु के भौतिक प्रतिनिधित्व पर आधारित नहीं है- यह उन्मुख है, इसके बजाय इसकी कार्यप्रणाली को समझाने के लिए समीकरणों का प्रयोग किया जाता है।
विभिन्न प्रकार के परमाणु मॉडल –
सन् 1808 में एक ब्रिटिश स्कूल के जॉन डॉल्टन नामकअध्यापक ने प्रथम बार द्रव्य का परमाणु सिद्धान्त परिभाषित किया। इसमें परमाणु को पदार्थ का मुख्य कण माना। इसे डॉल्टन का परमाणु सिद्धान्त कहा जाता हैं।
अंग्रेज रसायनज्ञ, जाॅन डाल्टन ने सन् 1808 में द्रव्यों की प्रकृति के बारे में एक आधारभूत सिद्धांत प्रतिपादित किया था। डाल्टन ने द्रव्यों की विभाज्यता का विचार दिया जिन्हें उस समय तक दार्शनिकता कहा जाता था। ग्रीक दार्शनिकों के द्वारा द्रव्यों के सूक्ष्मतम अविभाज्य कण, जिसे परमाणु नाम दिया था, उसे डाल्टन ने भी परमाणु नाम परिभाषित किया। डाल्टन के इस सिद्धांत का आधार रासायनिक संयोजन के नियम थे। डाल्टन के परमाणु सिद्धांत के अनुसार सभी द्रव्य चाहे तत्व, यौगिक या मिश्रण हो, सूक्ष्म कणों से बने होते हैं जिन्हें परमाणु नाम दिया हैं।
सभी द्रव्य परमाणुओं से बने होते हैं, जो कि रासायनिक अभिक्रिया में हिस्सा लेते हैं। परमाणु अविभाज्य तथा सूक्ष्म कण होते हैं जो रासायनिक अभिक्रिया में न तो सृजित होते हैं और न ही वो नष्ट होते है। दिए गए तत्व के सभी परमाणुओं का द्रव्यमान एवं रासायनिक गुणधर्म एक समान होते हैं। अलग-अलग तत्वों के परमाणुओं के द्रव्यमान एवं रासायनिक गुणधर्म अलग-अलग होते हैं। अलग-अलग तत्वों के परमाणु आपस में छोटी पूर्ण संख्या के अनुपात में संयोग कर यौगिक बनाते हैं। किसी भी यौगिक में परमाणुओं की सापेक्ष संख्या एवं प्रकार निश्चित होते हैं।
सन 1891-1897 तक के अपने प्रयोगो से सन 1898 में जे.जे. थॉमसन ने यह सिद्ध किया की परमाणु एक समान आवेशित गोला (त्रिज्या लगभग 10−10m) होता है, जिसमे धनावेश समान रूप से बंट रहता है। इस पर इलेक्ट्रॉन इस प्रकार व्यवस्थित होते हैं कि उससे एक स्थिर व स्थायी वैद्युत व्यवस्था प्राप्त होती है। इसे इलेक्ट्रॉन की खोज के तुरंत ही बाद, और परमाणु नाभिक की खोज से पहले बनाया गया था। इस प्रस्तावित मॉडल को थॉमसन ने मार्च 1904 में उस समय की प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिका ‘फिलॉस्फिकल मैग्जीन‘ में प्रकाशित कराया था।
इस परमाणु मॉडल को कई प्रकार के नाम दिए गए है जैसे:- प्लम-पुडिंग मॉडल (Plum-pudding model), रेज़िन-पुडिंग मॉडल, तरबूज मॉडल इत्यादि। इस मॉडल का नाम तरबूज मॉडल रखा गया क्योंकि इस मॉडल में परमाणु का धनावेश या तरबूज के रूप माना गया है और इलेक्ट्रॉन इसमे प्लम अथवा बीज की तरह मौजूद है।
रदरफोर्ड का परमाणु मॉडल प्रसिद्ध रसायनज्ञ तथा भौतिकशास्त्री अर्नेस्ट रदरफोर्ड द्वारा बनाया गया है जिसको उन्होने सन 1911 के अपने इलेक्ट्रॉन के प्रयोगों के आधार पर पेश किया। इस मॉडल ने परमाणु के भीतर धनावेशित भाग होने को सिद्ध किया था। उन्होंने यह दर्शाने के लिए एक प्रयोग किया, जो निम्नानुसार है:-
रदरफोर्ड ने सोने की 100 nm (100 नेनोमीटर) की पतली पन्नी पर अल्फा कणों की बौछार की। सोने की पन्नी के चारों ओर फोटोग्राफिक प्लेट लगी हुई थी जो प्रतिदीप्त पदार्थ (ZnS, जिंक सल्फाइड) से लेपी गयी थी। जब उन्होने सोने की पन्नी पर अल्फा कणो की बौछार की तो निम्न परिणाम प्राप्त हुए-
बोर का पूरा नाम था- नील्स हेनरिक डेविड बोर है। इनका जन्म 1885 को डेनमार्क में हुआ। सन् 1913 में बोर द्वारा परमाणु मॉडल पेश किया गया। नील्स बोर द्वारा रदरफोर्ड के परमाणु मॉडल में कुछ तथ्यों की कमियों का अंदाजा लगाया गया तथा प्लांक के क्वाण्टम सिद्धांत की मदद लेते हुए बोर ने अपना एक मॉडल बनाया किया। यह मॉडल नील्स बोर द्वारा परमाणु के सम्बन्ध में बनाया गया था। इसे रदरफोर्ड-बोर मॉडल भी कहते है, क्योंकि इसका निर्माण रदरफोर्ड के परमाणु मॉडल में कुछ स्थितियों में सुधार व नवीनीकरण करके किया गया था, अतः काफी हद तक रदरफोर्ड के मॉडल के समान था।
बोर के इस मॉडल के अनुसार यह बात सिद्ध की गयी थी कि इलेक्ट्रॉन द्वारा नाभिक के बाहरी ओर लगातार तेज गति से चक्कर लगाये जाते हैं। इसके लिए इलेक्ट्रॉन को ऊर्जा या बल की जरूरत पड़ती है। इसे अपकेंद्रिय बल कहा जाता हैं। जब विद्युत के ऋण आवेश युक्त इलेक्ट्रॉन का नाभिक के चक्कर लगाने से इसमें मौजूद धन आवेश वाले प्रोटॉन के कारण इनके मध्य आकर्षण बल उत्पन्न होता है। यह आकर्षण बल ही इलेक्ट्रॉन को अपकेंद्रिय बल देने में मदद करता है। इसके कारण ही इनमे गति करने की ऊर्जा बनी रहती है।