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ब्रह्मसमाज
आदि ब्रह्मसमाज
प्रार्थना समाज
आर्य समाज
रामकृष्ण मिशन
थिओसोफिकल सोसाइटी
यंग बंगाल आंदोलन
ब्रह्मसमाज (1828)
ब्रह्मसमाज हिन्दू धर्म से सम्बन्धित प्रथम धर्म-सुधार आन्दोलन था। इसके संस्थापक राजा राममोहन राय थे, जिन्होंन 20 अगस्त, 1828 ई. में इसकी स्थापना कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में की थी। इसका मुख्य उद्देश्य तत्कालीन हिन्दू समाज में व्याप्त बुराईयों, जैसे- सती प्रथा, बहुविवाह, वेश्यागमन, जातिवाद, अस्पृश्यता आदि को ख़त्म करना। राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण का पिता कहा जाता है।
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आदि ब्रह्मसमाज (1866)
आदि ब्रह्मसमाज की स्थापना ब्रह्मसमाज के विभाजन के उपरान्त आचार्य केशवचन्द्र सेन द्वारा की गई थी। आदि ब्रह्मसमाज की स्थापना कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में हुई थी। ब्रह्मसमाज का 1865 ई. में विखण्डन हो चुका था। केशवचन्द्र सेन को देवेन्द्रनाथ टैगोर ने आचार्य के पद से हटा दिया। फलस्वरूप केशवचन्द्र सेन ने ‘भारतीय ब्रह्म समाज‘ की स्थापना की, और इस प्रकार पूर्व का ब्रह्मसमाज ‘आदि ब्रह्मसमाज‘ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
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प्रार्थना समाज (1867)
प्रार्थना समाज की स्थापना वर्ष 1867 ई. में बम्बई (महाराष्ट्र) में आचार्य केशवचन्द्र सेन की प्रेरणा से महादेव गोविन्द रानाडे, डॉ. आत्माराम पांडुरंग, चन्द्रावरकर आदि के द्वारा की गई थी। जी.आर. भण्डारकर प्रार्थना समाज के अग्रणी नेता थे। प्रार्थना समाज का मुख्य उद्देश्य जाति प्रथा का विरोध, स्त्री-पुरुष विवाह की आयु में वृद्धि, विधवा-विवाह, स्त्री शिक्षा आदि को प्रोत्साहन करना था।
10 अप्रैल सन् 1875 ई. में बम्बई में दयानंद सरस्वती ने ‘आर्य समाज’ की स्थापना की। इसका उद्देश्य वैदिक धर्म को पुनः शुद्ध रूप से स्थापित करने का प्रयास, भारत को धार्मिक, सामाजिक व राजनीतिक रूप से एक सूत्र में बांधने का प्रयत्न, पाश्यात्य प्रभाव को समाप्त करना आदि था। 1824 ई. में गुजरात के मौरवी नामक स्थान पर पैदा हुए स्वामी दयानंद को बचपन में ‘मूलशंकर’ के नाम से जाना जाता था। 21 वर्ष की अवस्था में मूलशंकर ने घर त्याग कर घुमक्कड़ों की तरह जीवन स्वीकार किया। 24 वर्ष की अवस्था में उनकी मुलाकात दण्डी स्वामी पूर्णानंद से हुई। इन्हीं से सन्न्यास की दीक्षा लेकर मूलशंकर ने दण्ड धारण किया। दीक्षा प्रदान करने के बाद दण्डी स्वामी पूर्णानंद ने मूलशंकर का नाम ‘स्वामी दयानन्द सरस्वती’ रखा।
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रामकृष्ण मिशन (1897)
‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना स्वामी विवेकानन्द ने 1 मई, 1897 ई. में की थी। उनका उद्देश्य ऐसे साधुओं और सन्न्यासियों को संगठित करना था, जो रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं में गहरी आस्था रखें, उनके उपदेशों को जनसाधारण तक पहुँचा सकें और संतप्त, दु:खी एवं पीड़ित मानव जाति की नि:स्वार्थ सेवा कर सकें। 1893 ई. में स्वामी विवेकानन्द ने शिकांगो में हुई धर्म संसद में भाग लेकर पाश्चात्य जगत को भारतीय संस्कृति एवं दर्शन से अवगत कराया। धर्म संसद में स्वामी जी ने अपने भाषण में भौतिकवाद एवं आध्यात्मवाद के मध्य संतुलन बनाने की बात कही। विवेकानन्द ने पूरे संसार के लिए एक ऐसी संस्कृति की कल्पना की, जो पश्चिमी देशों के भौतिकवाद एवं पूर्वी देशों के अध्यात्मवाद के मध्य संतुलन बनाने की बात कर सके तथा सम्पूर्ण विश्व को खुशियाँ बाँट सके।
‘थियोसोफ़िकल सोसाइटी’ की स्थापना वर्ष 1875 ई. में न्यूयॉर्क (संयुक्त राज्य अमरीका) में तथा इसके बाद 1886 ई. में अडयार (चेन्नई, भारत) में की गई थी। इसके संस्थापक ‘मैडम हेलना पेट्रोवना व्लावात्सकी’ एवं ‘कर्नल हेनरी स्टील ऑल्काट‘ थे। थियोसोफ़िकल सोसाइटी का मुख्य उद्देश्य धर्म को आधार बनाकर समाज सेवा करना, धार्मिक एवं भाईचारे की भावना को फैलाना, प्राचीन धर्म, दर्शन एवं विज्ञान के अध्ययन में सहयोग करना आदि था। भारत में इसकी व्यापक गतिविधियों को सुचारू रूप से चलाने का श्रेय एनी बेसेंट को दिया जाता है।
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यंग बंगाल आंदोलन (1875)
यंग बंगाल आन्दोलन की स्थापना वर्ष 1828 ई. में बंगाल में की गई थी। इसके संस्थापक ‘हेनरी विविनय डेरोजियो‘ (1809-1831 ई.) थे। इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य प्रेस की स्वतन्त्रता, ज़मींदारों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों से रैय्यत की संरक्षा, सरकारी नौकरियों में ऊँचे वेतनमान के अन्तर्गत भारतीय लोगों को नौकरी दिलवाना था। एंग्लों-इंडियन डेरोजियो ‘हिन्दू कॉलेज’ में अध्यापक थे। वे फ़्राँस की महान् क्रांति से बहुत प्रभावित थे।
भारत में अंग्रेजी शासन की स्थापना से जन्मी बौद्धिक विकास एवं पाश्चात्यीकरण की प्रक्रिया।
मिशनरियों द्वारा ईसाई धर्म का प्रसार एवं भारतीयों को ईसाई बनाना।
हिन्दु धर्म एवं समाज में व्याप्त अंधविश्वास, कुरीतियां एवं असमानता।
देसी एवं विदेशी विद्वानों की चिन्तनशील गतिविधियां।
पाश्चात्य शिक्षा, मानवतावाद एवं सार्वभौमवाद का विकास।
विशेषताएं
विश्ववादी नजरिया एवं धार्मिक सार्वभौमवाद
सामाजिक स्थिति पर व्यापक नजर
तर्क एवं बौद्धिक विचारों को आधार बनाया
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अतीत की व्याख्या
राष्ट्रीय एकता एवं समरसता
ब्रह्म समाज
राजा राम मोहन राय ने 20 अगस्त, 1828 में ब्रह्म सभा नाम के से एक संस्था की स्थापना की। यही बाद में चलकर ब्रह्म समाज के नाम से जानी गयी।
इसका उद्देश्य हिन्दु धर्म में सुधार, पुरोहितवाद की समाप्ति, समाजिक समानता में वृद्धि, धार्मिक एवं सामाजिक कुरीतियों को दूर करना, भारत का धार्मिक एवं सामाजिक रूप से उत्थान करना था।
अवधारणा: एकेश्वरवाद, आस्तिकता एवं आचार आदि विचारों पर आधारित।
क्रियाकलाप: मूर्तिपूजा का विरोध, एकेश्वरवाद की स्थापना, धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या के लिए पुरोहितवाद को नकारना, अवतारवाद का खण्डन, जाति व्यवस्था पर प्रहार, बाल विवाह का विरोध, सती प्रथा का विरोध, स्त्री पुरूष की आधुनिक शिक्षा का प्रयास, राष्ट्रीयता का प्रसार।
ब्रह्म समाज का विकास
1830 में राजा राम मोहन राय के इंग्लैण्ड जाने के बाद समाज का नेतृत्व आचार्य रामचन्द्र विद्या वागीश ने किया।
1833 में समाज का संचालन द्वारिका नाथटैगोर के हाथ में आया।
1843 में नियंत्रण देवेन्द्र नाथ टैगोर के हाथ में आया
1856 में समाज का नियंत्रण केशव चन्द्र सेन के हाथ में आया।
केशव चन्द्र सेन के नेतृत्व में ब्रह्म समाज का विस्तार बंगाल से बाहर हुआ एवं उत्तर प्रदेश, पंजाब व मद्रास में शाखाएं खोली गयी
ब्रह्म समाज में फूट
केशव चन्द्र सेन के अति उदारवादी विचारों के ही कारण ब्रह्म समाज का विभाजन हुआ। केशव चन्द्र सेन के नियंत्रण में ब्रह्म समाज के अन्दर ऐसी अनेक गतिविधियां होने लगी जिनकी वजह से केशव चन्द्र सेन एवं देवेन्द्र नाथ टैगोर के बीच मतभेद हो गया जैसे –
समाज का अन्तर्राष्ट्रीय करण
समाज में सभी धर्मों की पुस्तकों का पाठ (ईसाई, मुसलमान, पारसी और चीन)
केशव चन्द्र सेन हिन्दु धर्म को संकीर्ण मानते थे। संस्कृत के मूल पाठ को ठीक नहीं माना।
केशव चन्द्र सेन ने यज्ञोपवीत पहनने के विरूद्ध प्रचार किया।
अन्तर्राष्ट्रीय विवाह को प्रोत्साहन देना इत्यादि।
देवेन्द्र नाथ टैगोर ने 1865 ई. में केशव चन्द्र सेन को आचार्य की पदवी से निकाला।
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प्रथम विभाजन (1865 ई. में)-
ब्रह्म समाज
आदि ब्रह्म समाज
यह मूल ब्रह्म समाज ही था जिसका संचालन विभाजन के बाद देवेन्द्र नाथ टैगोर ने किया
केशव चन्द्र द्वारा स्थापित शाखा
द्वितीय विभाजन: 1878 में-
आदि ब्रह्म समाज
साधारण ब्रह्म समाज
केशव चन्द्र सेन द्वारा स्थापित पुरानी शाखा
आनंद मोहन बोस एवं शिवनाथ शास्त्री द्वारा स्थापित
ब्रह्म समाज का योगदान
बहुदेव वाद तथा मूर्तिपूजा का विरोध।
बहुपत्नि प्रथा एवं सती प्रथा का विरोध।
विधवा विवाह का समर्थन एवं बाल विवाह का विरोध।
नैतिकता पर बल, कर्मफल में विश्वास, सर्वधर्म समभाव, निर्गुण ब्रह्म की उपासना
धार्मिक पुस्तकों, पुरूषों एवं वस्तुओं की सर्वोच्चता में अविश्वास
छूआछूत, अंधविश्वास, जातिगत भेदभाव का विरोध।
बांग्ला एवं अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार-प्रसार को समर्थन।
हिन्दुओं द्वारा विदेश यात्रा को धर्म-विरूद्ध घोषित करने की आलोचना।
राजा राम मोहन राय
राजा राम मोहन राय का जन्म 1774 ई. में बंगाल के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। इनकी शिक्षा पटना एवं वाराणसी में हुई।
अन्य नाम/उपाधियां: पुनर्जागरण आन्दोलन का अग्रदूत, भारतीय जाग्रति का जनक, सुधार आन्दोलनों का प्रवर्तक, आधुनिक भारत का पिता, अतीत और भविष्य के मध्य सेतु, भारतीय राष्ट्रवाद का जनक, भारत का प्रथम आधुनिक पुरूष, नव प्रभात का तारा।
भाषा ज्ञान:संस्कृत, अंग्रेजी, फारसी, अरबी, फ्रेंच, ग्रीक, जर्मन, लैटिन, हिब्रू एवं अन्य।
पत्रिका/पुस्तक लेखन
तुहफात-उल-मुहदीन (एकेश्वरवादियों को उपहार) : प्रथम ग्रंथ था जो फारसी भाषा में लिखा गया था। यह 1809 ई. में प्रकाशित हुआ। इसमें मूर्तिपूजा का विरोध किया एवं एकेश्वर वाद सब धर्मों का मूल बताया।
प्रीसेप्ट्स ऑफ़ जीसस : सन 1820 ई. में लिखी जो 1823 ई. में जाॅन डिग्बी के प्रयासों से लंदन से प्रकाशित हुई।
संवाद कौमुदी : सती प्रथा का विरोध किया। 1821 में बंगाली भाषा की पत्रिका।
मिरात-उल-अखबार : 1822 ई. में फारसी भाषा में।
ब्रह्मनिकल मैगजीन : अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित ब्रह्मनिकल मैगजीन।
राजा राम मोहन राय की विचारधारा
राजा राममोहन राय आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं सामाजिक समानता व ऐकेश्वरवाद में विश्वास रखते थे। धर्म के मामले में उनके विचार उपयोगिता वादी थे वह धर्मों को सत्य की कसौटी पर परखना नहीं चाहते थे बल्कि धर्मों के सामाजिक लाभ को देखते थे। उनका उद्देश्य संसार के सभी धर्मों को जाति, मत एवं देश इत्यादि बंधनों से दूर, एक ईश्वर के चरणों में लाना था। सती प्रथा का विरोध, विधवा पुनर्विवाह का समर्थन, स्त्री शिक्षा का समर्थन, बाल विवाह का विरोध, बहुपत्नी प्रथा का विरोध आदि के माध्यम से वह स्त्रियों की दशा में सुधार के पक्षधर थे। जातिवाद पर प्रत्यक्ष प्रहार, छुआछूत का विरोध, समाजिक समानता में वृद्धि के पक्षधर होना बताता है। शिक्षा के क्षेत्र में वे अंग्रेजी शिक्षा के पक्षधर थे।
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राजा राम मोहन राय द्वारा स्थापित संस्थाएं
1814-15 ई. में आत्मीय सभा का गठन किया।
1816 ई. में वेदान्त सोसायटी की स्थापना की।
1821 ई. में कलकत्ता यूनीटेरियन कमेटी की स्थापना की।
1817 ई. में डेविड हेयर के सहयोग से कलकत्ता में हिन्दु काॅलेज की स्थापना की।
1825 ई. में वेदान्त काॅलेज की स्थापना की।
20 अगस्त, 1828 ई. में ब्रह्म सभा (ब्रह्म समाज) की स्थापना की।
राजा राम मोहन राय जाॅन डिग्बी के दीवान रहे थे।
इन्हें राजा की उपाधि अकबर-II ने 1830 ई. में दी थी।
राजा राममोहन राय की मृत्यु 1833 ई. में ब्रिस्टल (इंग्लैण्ड) में हुई थी, यहां उनकी समाधि स्थित है।
आर्य समाज
आर्य समाज की स्थापना 1875 ई. में स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा बम्बई में की गई। प्रारम्भं में इसका मुख्यालय बम्बई था बाद में 1877 ई. में लाहौर को बनाया गया।
आर्य समाज की स्थापना का उद्देश्य –
प्राचीन वैदिक धर्म की शुद्ध रूप से पुनः स्थापना करना।
भारत को सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक रूप से एक सूत्र में पिरोना
भारतीय सभ्यता व संस्कृति को, पाश्चात्य प्रभाव से विकृत होने से बचाना।
आर्य समाज व दयानन्द सरस्वती की विचारधारा
आर्य समाज ने छुआछूत, जाति व्यवस्था का विरोध किया परन्तु वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया
ईश्वर के प्रति पितृत्व एवं मानव के प्रति भ्रातृत्व की भावना, स्त्री पुरूष समानता, लोगों के बीच पूर्ण न्याय की स्थापना एवं सभी राष्ट्रों के मध्य सौहार्दपूर्ण व्यवहार।
हिन्दु धर्म में आत्मसम्मान एवं आत्म विश्वास की भावना जगाना एवं पाश्चात्य जगत की श्रेष्ठता के भ्रम से मुक्त कराना।
इस्लामी एवं ईसाई मिशनरियों से हिन्दु धर्म की रक्षा कर अक्षुण्य बनाना।
आधुनिकता एवं देशभक्ति के आदर्शों को अपनाना।
अन्तर्जातीय विवाह तथा विधवा पुनर्विवाह का समर्थन करना।
प्राकृतिक आपदाओं के समय लोगों को सहायता पहुंचाना।
शिक्षा व्यवस्था को नई दिशा देना
लोगों का ध्यान परलोक की बजाय वास्तविक संसार में रहने वाले लोगों की समस्याओं की ओर आकृष्ट करना।
ऐकेश्वरवाद को स्थापित करना, अवतारवाद का खण्डन करना।
आत्मा की अमरता को स्वीकार किया एवं पुनर्जन्म को सत्य माना परन्तु श्राद्ध जैसे कर्मकाण्डों का विरोध किया।
कर्मफल एवं मोक्ष में विश्वास करते थे।
वेदों को हिन्दुओं की सर्वोच्च धार्मिक पुस्तक माना।
आर्य समाज ने लडकों के लिए विवाह की न्यूनतम आयु 25 वर्ष एवं लडकियों के लिए न्यूनतम उम्र 16 वर्ष निर्धारित की।
आर्य समाज एवं दयानन्द सरस्वती के 10 प्रमुख सिद्धांत
सत्य केवल वेदों में निहित है अतः वेद पाठ अति आवश्यक है।
वेद मंत्रों के साथ हवन करना।
मूर्ति पूजा का विरोध
अवतारवाद एवं धार्मिक यात्राओं का विरोध
कर्म सिद्धान्त और आवागमन (पुनर्जन्म) सिद्धांत का समर्थन।
निराकार ईश्वर की एकता में विश्वास
स्त्री शिक्षा में विश्वास
विशेष परिस्थितियों में विधवा विवाह की स्वीकृति
बाल विवाह एवं बहुविवाह का विरोध
हिन्दी, संस्कृत भाषा का प्रचार।
नोट: पण्डिता रमा बाई ने आर्य महिला समाज की स्थापना की।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म 1824 ई. में मौरवी जिला गुजरात में हुआ। इनके बचपन का नाम मूलशंकर था।
स्वामी पूर्णानन्द ने 1848 ई. में इन्हें दयानन्द सरस्वती नाम दिया।
1861 ई. में सरस्वती मथुरा में स्वामी बिरजानन्द से मिले एवं इनके शिष्य बन गए।
1863 ई. में सरस्वती ने हिन्दु धर्म रक्षा के लिए आगरा में पाखण्ड खण्डिनी पताका फहरायी।
1875 ई. में आर्य समाज की स्थापना की।
सरस्वती जी ने जन्म के स्थान पर कर्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया।
गौर रक्षा आन्दोलन: गायों की रक्षा हेतु आर्य समाज ने आन्दोलन चलाया।
शुद्धि आन्दोलन: हिन्दु धर्म त्याग कर दूसरा धर्म स्वीकार कर चुके लोगों को पुनः हिन्दु धर्म में वापस लाने के लिए आर्य समाज द्वारा चलाया गया आन्दोलन।
स्वामी दयानन्द की रचनाएं: सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेद भाष्य, वेद भाष्य, पाखण्ड खण्डन, अद्वैतमत का खण्डन, वल्लभाचार्य मत खण्डन, पंच महायज्ञ विधि।
स्वामी दयानन्द का निधन 1883 ई. में अजमेर में हुआ।
प्रार्थना समाज
प्रार्थना समाज की स्थापना 1867 ई. में डा. आत्माराम पाण्डुरंग ने केशव चन्द्र सेन की प्रेरणा से बम्बई में की।
तथ्य
यथार्थ रूप में यह ब्रह्म समाज की ही एक शाखा थी। यह एक गुप्त समाज थी और मुख्य रूप से समाज सुधार गतिविधियों पर केन्द्रत थी
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1869 ई. में महादेव गोविन्द रानाडे प्रार्थना समाज से जुड़े एवं इसे प्रसिद्धि दिलाई।
आर. जी. भण्डारकर एवं एन. जी. चन्दावरकर प्रार्थना समाज के अन्य प्रमुख सहयोगी थे।
तथ्य
1871 में रानाडे ने सार्वजनिक समाज की स्थापना की। रानाडे की प्रतिभा के कारण इन्हें ‘ महाराष्ट्र का सुकरात ’ कहा जाता है।
प्रार्थना समाज के मुख्य उद्देश्य
जाति व्यवस्था को अस्वीकृत करना।
स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन देना।
विधवा पुनर्विवाह को प्रोत्साहन देना।
बाल विवाह का विरोध और लड़के, लड़कियों की विवाह की आयु में वृद्धि।
प्रार्थना समाज ने दलितों, अछूतों, पिछड़ों तथा पीड़ितों की दशा एवं दिशा में सुधार हेतु ‘ दलित जाति मण्डल’, ‘समाज सेवा संघ’ तथा दक्कन शिक्षा सभा (रानाडे द्वारा) का गठन किया।
महादेव गोविन्द रानाडे
रानाडे ने 1884 में पुणे में दक्कन एजुकेशन सोसायटी की स्थापना की। जिसे बाद में पूना फग्र्यूसन काॅलेज कहा गया।
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1891 में महाराष्ट्र में विडो रिमैरिज एसोसिएशन की स्थापना की।
इनके प्रमुख सहयोगी धोंदो केशव कर्वे (डी. के. कर्वे) ने 1899 ई. में ‘ विधवा आश्रम संघ ’ (विडो होम) की स्थापना की। कर्वे विधुर थे और उन्होंने 1893 ई. एक विधवा से विवाह किया। स्त्री शिक्षा के लिए श्री कर्वे ने 1916 ई. में बम्बई में प्रथम ‘ भारतीय महिला विश्वविद्यालय ’ की स्थापना की।
रामकृष्ण मिशन एवं स्वामी विवेकानन्द
रामकृष्ण मिशन की स्थापना 1897 ई. में स्वामी विवेकानन्द ने वेल्लूर, कलकत्ता में की।
इसका उद्देश्य लोक सेवा एवं समाज सुधार, दरिद्र नारायण (व्यक्ति) की सेवा, भारत का सांस्कृतिक उत्थान, हिन्दु धर्म में जागृति लाना। रामकृष्ण परमहंस के विचारों का प्रसार करना।
रामकृष्ण परमहंस कलकत्ता में एक मंदिर के पुजारी थे। इनकी भारतीय विचार एवं संस्कृति में पूर्ण आस्था थी परन्तु ये सभी धर्मों को सत्य मानते थे।
ये ऐकेश्वरवाद में विश्वास रखते थे साथ ही मूर्ति पूजा में भी विश्वास था।
इन्होने चिन्ह एवं कर्मकाण्ड की उपेक्षा आत्मा पर बल दिया।
वे ईश्वर प्राप्ति के लिए ईश्वर के प्रति निःस्वार्थ और अनन्य भक्ति में आस्था रखते थे। इन्हें दक्षिणेश्वर संत भी कहा जाता था।
स्वामी विवेकानन्द
स्वामी विवेकानन्द का जन्म 1862 ई. में हुआ। इनके बचपन का नाम नरेन्द नाथ दत्त था।
स्वामी विवेकानन्द के गुरू का नाम राम कृष्ण परमहंस (गदाधर चट्टोपाध्याय) था।
1893 ई. में विवेकानन्द ने शिकागो में आयोजित प्रथम विश्वधर्म सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किया एवं प्रसिद्धि प्राप्त की।
राजस्थान में खेतड़ी के राजा कुंवर अजीत राज सिंह के सुझाव पर इन्होंने अपना नाम स्वामी विवेकानन्द रखा।
फरवरी 1896 ई. में इन्होंने न्यूयाॅर्क में वेदान्त सोसायटी की स्थापना की।
1897 ई. में इन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की।
1900 में पेरिस में आयोजित द्वितीय विश्व धर्म सम्मेलन में भी भाग लिया।
4 जुलाई, 1902 को कलकत्ता में इनका देहावसान हो गया।
स्वामी विवेकानन्द ने मूर्ति पूजा एवं बहुदेववाद का समर्थन किया। इन्होंने ईश्वर के साकार एवं निराकार दोनों रूपों को माना।
स्वामी विवेकानन्द को नव हिन्दु जागरण का संस्थापक माना जाता है।
सुभाष चन्द्र बोस ने विवेकानन्द को ‘ आधुनिक राष्ट्रीय आन्दोलन का आध्यात्मिक पिता ’ कहा था।
वेलेंटाइन शिराॅल ने ‘विवेकानन्द के उद्देश्यों को राष्ट्रीय आन्दोलन का कारण माना था।’
आयरिश महिला माग्रेट नोबल (सिस्टर निवेदिता) ने विवेकानन्द के उपदेशों का प्रचार प्रसार किया।
यंग बंगाल आन्दोलन
यंग बंगाल आन्दोलन की स्थापना हेनरी विवियन डेरोजियो ने की थी।
उद्देश्य –
जर्जर एवं पुराने रीति-रिवाजों का विरोध
आत्मिक उन्नति एवं समाज सुधार
नारी शिक्षा की वकालत करना एवं नारी अधिकारों की मांग
प्रेस की स्वतंत्रता, जमींदारों की निरंकुशता पर प्रतिबंध एवं उच्च सेवाओं में भारतीयों की नियुक्ति की मांग।
डेरोजियो ने आत्म वितार एवं समाज सुधार हेतु ‘एकेडेमिक एसोसिएशन, एवं ‘सोसायटी फाॅर द एग्जिीविशन आॅफ जेनरल नाॅलेज’ की स्थापना की। इन्होंने ‘एग्लो-इंडियन हिन्दु एसोसिएशनः बंगहित सभा’ एवं ‘डिबेटिंग क्लब’ की भी स्थापना की। डेरोजियो ने ‘ईस्ट इंडिया’ नामक दैनिक पत्र का भी संपादन किया।
हिन्दु कट्टरपंथियों के विरोध एवं हिन्दु काॅलेज के प्रबंधकों द्वारा इस आन्दोलन से संबद्ध विधार्थियों पर प्रतिबंध लगाया गया और यह आन्दोलन सफल न हो सका।
थियोसोफिकल सोसायटी
थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना 1875 ई में रूसी महिला एच. पी. ब्लावैटस्की एवं अमेरिकी कर्नल एम. एस. अल्काट ने न्यूयार्क में की।
1882 ई. में अड्यार (मद्रास के पास) को मुख्यालय बनाया। यही इसका अंतर्राष्ट्रीय कार्यालय बना।
इसका उद्देश्य प्राचीन हिन्दु धर्म के लोगों के आत्मविश्वास को जागाना, धर्म को समाज सेवा का मुख्य आधार बनाना और भेदभाव का विरोध करना था।
सिद्धांत: धर्म, दर्शन एवं गुह्य विद्या का मिश्रण
दर्शन: मुख्य रूप से हिन्दु एवं बौद्ध दर्शन से लिया
विचारधारा: दैव-विज्ञान
धार्मिक शिक्षा के चार बिन्दु
ईश्वर की एकता
विश्व बंधुत्व
परमेश्वर के विविध रूप
दिव्य आत्मायें तथा प्राणियों का क्रम
प्रयास:
बाल विवाह एंव जाति पांति का विरोध
विधवाओं की दशा में सुधार
प्रजाति, नस्ल, लिंग, जाति व रंग के भेदभाव को समाप्त कर लोगों के कल्याण के लिए प्रयत्न।
हिन्दु धर्म की प्राचीन विरासत एवं पहचान को पुनस्र्थापित करना
तथ्य
एनी बेसेन्ट 1893 ई. में भारत आयी।
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एनी बेसेन्ट ने 1898 ई. में वाराणसी में सेन्ट्रल हिन्दु काॅलेज की नींव रखी इसी काॅलेज को मदन मोहन मालवीय ने 1916 ई. में बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय के रूप में विकसित किया।
1907 ई. में एनीबेसेन्ट थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्षा चुनी गयी।
वेद समाज
वेद समाज की स्थापना 1864 ई. में के. श्री धरालु नायडू ने मद्रास में की। वेद समाज को, ‘ दक्षिण भारत का ब्रह्म समाज ’ कहा जाता है।
अन्य आन्दोलन
संस्था
स्थापना
स्थल
संस्थापक
उद्देश्य
परमहंस मण्डली
1849-50 ई.
बम्बई
आत्माराम पाण्डुरंग
धर्म तथा जनता के आचरण में सुधार करके सामाजिक असमानता को मिटाना।
देव समाज
1887 ई.
लाहौर
शिव नारायण अग्निहोत्री
आत्मा की शुद्धि, गुरू की श्रेष्ठता की स्थापना एवं अच्छे मानवीय कार्य करना।
तत्वबोधिनी सभा
1839 ई
बंगाल
देवेन्द्र नाथ टैगोर
राममोहन राय के विचारों का प्रचार-प्रसार
धर्म सभा
1830 ई.
बंगाल (कलकत्ता)
राजा राधाकांत देव
सती प्रथा का समर्थन एवं ब्रह्म समाज का विरोध
राधा स्वामी आन्दोलन
1861 ई.
आगरा
शिवदयाल खत्री (तुलसीराम)
ऐकेश्वरवादी सिद्धांतों में विश्वास तथा पवित्र सामाजिक जीवन जीने में विश्वास
भारत सेवक संघ
1905 ई.
बम्बई
गोपाल कृष्ण गोखले
भारतीयों की सेवा करना तथा अंग्रेजों के विरूद्ध उन्हें जागृत करना
सामाजिक सेवा संघ
1921 ई.
बम्बई
नारायण मल्हार जोशी
…
सेवा समिति
1914 ई.
इलाहाबाद
ह्रदयनाथ कुंजरू
प्राकृतिक आपदाओं में समाज सेवा एवं शिक्षा तथा स्वास्थ्य में जनसहयोग।
भील सेवा मण्डल
1922 ई.
बम्बई
अमृतालाल विट्ठल दास (ठक्कर बापा)
आदिवासियों के उत्थान के लिए अथक प्रयत्न किया और इन्हें ‘जनजाति’ की संज्ञा प्रदान की।
सेवा सदन
1885
बम्बई
बहराम जी मालाबारी
समाज सुधार, समाज कल्याण एवं चिकित्सा सेवा का कार्य
शारदा सदन
1889 ई.
बम्बई(बाद में पूना)
पण्डिता रमाबाई
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श्री नारायण धर्म परिपालन योगम
1903 ई.
केरल
श्री नारायण गुरू
इजर्यावस जाति (केरल की सबसे दलित एवं अछूत जाति) की सामाजिक स्थिति में सुधार करना
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