भारत के विभिन्न नृत्य

नृत्य कला का ही एक रूप है, जिसमें अभिव्यक्ति का माध्यम शरीर होता हैं। भारत में नृत्य कि उत्पत्ति प्राचीन काल से ही मानी जाती हैं। मन्दिरों में पूजा अनुष्ठान के अवसरों पर नृत्य सम्पन्न किए जाते थे। प्राचीन भारत में अजन्ता और एलोरा के दीवारों पर जो चित्र बनाए गए वह भारतीय नृत्य कि लोकप्रियता का प्रमाण हैं। नृत्य का पहला औपचारिक उल्लेख भरतमुनी कि पुस्तक नाट्‌यशास्त्र में मिलता है।

नाट्‌यशास्त्र भारतीय शास्त्रीय नृत्य के दो आधारभूत स्वरूप होते हैं। 

  1. लास्य – यह अभिनय रस और भाव को दर्शाता है। 
  2. ताण्डव – उसमें लय और गति पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

एक ओर ताण्डव पुरुष स्वरूप को दर्शाती हैं वहीं दूसरी ओर लास्य स्त्री स्वरूप का सूचक हैं। 

नृत्य के द्वारा अभिव्यक्त भाव / रस- 

1. श्रृंगार रस → प्रेम 
2. हास्य रस → विनोद को दर्शाती है 
3. करुणा रस → दया  
4. रुद्र रस → क्रोध 
5. भयानक रस→ दहसत 
6. वीर रस → वीरता 
8. विभत्स इस → घृणा 
7. अद्‌भुत रस → अश्चर्य 
9. शांत रस 

इन भावों को मुद्राओं के जरीए अभिव्यक्त किया जाता है जिसमें हाथ व शरीर की मुद्राओं का मिश्रण हैं। ये आधारभूत 108 मुद्राएँ होती हैं। 

अभिनय दर्पण के अनुसार नृत्य के तत्व का 

1) नृत्त – इसमें लय शामिल है लेकिन किसी भी तरह कि अभिव्यक्ति नहीं। इसमें बुनियादी चरण होते है जो लय पर आधारित होते हैं। 

2) नृत्य – इसमें गति, चहरे का भाव, हाथों कि ऊंगलियों कि मुद्राओं पर विशेष ध्यान दिया जाता हैं। नृत्य में भाव भंगिमाओं का प्रदर्शन किया जाता हैं। 

3) नाट्य – इस नृत्य के माध्यम से किसी कथा को दर्शाया जाता है। 

भारत के शास्त्रीय नृत्य

शास्त्रीय नृत्य में उन्हें स्थान दिया गया है जिन नृत्यों में नाट्यशास्त्र के नियमों का अनुसरण होता हैं। इन नृत्यों में गुरू-शिष्य परम्परा का भी अनुसरण किया जाता है और इन नृत्यों को संगीत नाटक अकादमी से मान्यता प्राप्त हैं। उन शास्त्रीय नृत्यों कि संख्या 8 हैं। 

कत्थक, कुचीपुडी, भरत – नाट्‌यम, मणिपुरी, ओडिसी, कत्थकली, मोहिनी अहम, सोत्रिय

भरत नाट्‌यम् नृत्य

यह भरत‌मुनी से उत्पन्न माना जाता है। सारे नृत्यों में इसे सबसे पुराना माना जाता। भरत नाट्‌यम् को मन्दिर नृत्य के रूप में भी जाना जाता है तमिलनाडु में किया जाने वाला यह नृत्य धार्मिक और भक्ति से संबंधित हैं। इस नृत्य में ताण्डव और लास्य दोनों पक्षों पर जोर दिया जाता है। स्वतंत्रता सेनानी कृष्णा अभ्यर ने इस नृत्य शैली को पुनर्जीवित किया तथा रुकमणी देवी ने वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाई। 

कटकामुक मुद्रा -यह हस्तप्रधान मुद्रा है जिसमें तीन उंगलि कि मदद से ओम का प्रतीक दिखाया जाता है।

भरतनाट्‌यम् नृत्य के माध्यम से अग्नितत्व को अभिव्यक्त किया जाता है। नृत्य कि समाप्ति पर श्लोक और नृत्य पर श्लोक पढ़े जाते हैं और नृत्य के दौरान शरीर कि आकृति त्रिकोणाकार होती हैं । 

प्रमुख नृत्यकार / नृत्यांगना – लक्ष्मी विश्वनाथन, मल्लिका शाराभाई, मृणालीनी साराभाई यामिनी कृष्णामूर्ती 

कुचीपुडी नृत्य

यह मूलत: आंध्र प्रदेश के गाँव कुचेलपुरम् का माना गया है। वैष्णव धर्म से संबंधित इसमें अभिव्यक्तियाँ दिखाई जाती हैं। उस नृत्य  कि प्रमुख विषय-वस्तु भागवत पुराण कि कथाएँ हैं। इस नृत्य में श्रृंगार इस पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। 

मंडूक शब्दम् – यह मेंढक कि कहानि बताता हैं। 

तरंगम् – नृतक के द्वारा पीतल कि थाली के किनारे पर पैर रखकर एवं सिर पर घड़ा रखकर नृत्य किया जाता है। 

जलचित्र नृत्यम् – उसमें नृतक नृत्य करते समय पैर के अंगूठे से जमीन पर कोई चित्र बनाता है। 

प्रमुख कलाकार – राधा रेड्‌डी, राजा रेड्‌डी, यामिनी कृष्णमूर्ती, इन्द्राणी रहमान । 

कत्थककली

इस नृत्य में रामायण और महाभारत कि कहानियों का वर्णन किया जाता हैं। 1930 में मलियाली कवि वी. एन मेनन के द्वारा इसे पुनर्जीवित किया गया। इस नृत्य में चहरे पर श्रृंगार के साथ-साथ सिर पर टोपी (हेडगियर भी पहनी जाती हैं। 

रंगो का महत्व – 

हरा – शिष्टता व देवत्व का प्रतीक 
लाल – बुराई का प्रतीक | राजसी गौरव
काला – बुराई का प्रतीक
पीला – महिलाओं के लिए दर्शाया जाता है 

मणिप्रवालम् – कत्थककली नृत्य के दौरान गीत के लिए मणि-प्रवालम भाषा का प्रयोग किया जाता हैं। यह संस्कृत भाषा का मिश्रित रूप हैं। इस नृत्य में आँख और भौ के लय के माध्यम से रस को दर्शाया जाता है। कत्थककली आकाश तत्व का प्रतीक हैं। 

प्रमुख कलाकार – गुरू – ऊंच कुरूप, कोटक्कल शिवरभन मोहिनी अट्‌टम् एवं रिवा गांगुली। 

मोहिनी अट्‌टम् → मोहिनी से तात्पर्य है जादूगरनी या आकर्षक महिला तथा अट्टम से तात्पर्य है नृत्य । यह किसी महिला का एकल नृत्य है जो कि लास्य को प्रदर्शित करता हैं। 19वीं सदी में केरल के प्रावणकोर नामक स्थान पर बडितेलु के द्वारा इस नृत्य को विकसित किया गया। इस नृत्य में विष्णु के स्त्रेण नृत्य कि कहानि का वर्णन मिलता है। वास्तव में मोहिनी अम भरतनाट्‌यम् व कथककली का मिश्रण हैं। जिसके प्रमुख कलाकार है है- सुनन्दा नायर, माधुरी अम्मा जयप्रभा मेनन 

ओड़िसी नृत्य

ओड़िसी नृत्य कि जानकारी उद‌यगिरी और खण्डगिरी की गुफाओं से मिलती हैं। इसका नामकरण औद्रा  नृत्य से हुआ है। जैन राजा खारवेल के संरक्षण में महारी द्वारा यह नृत्य किया जाता था। वैष्णव धर्म के आने के बाद उसमे महारी व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया। 

गोटीपुआ – उस नृत्य में युवा लड़‌कों को महिलाओं के वस्त्र पहन नृत्य कराया जाता था। 
त्रिभंग – ओड़िसी नृत्य शैली में शरीर के तीन झुक हुए रूप होना स्वभाविक है जिसे त्रिभंग | त्रिभाण्डनी मुद्रा का जाता है। नृतक अपने शरीर के द्वारा जटिल ज्यामितीय आकार बनाते हैं। यह नृत्य जल तत्व का प्रतीक हैं 

प्रमुख कलाकार – सोनल मानसिंह, शेरोन लोहेन (USA), मरिला बारवी (अर्जेंटीना), गुरू पंकज चारणा इन्द्रा रहमान के द्वारा उस नृत्य को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पह‌चान दिलाई गई।

मणिपुरी नृत्य

पौराणिक कथाओं के अनुसार इस नृत्य कि उत्पत्ति मणिपुर घाटी में शिवपार्वती के दिव्य नृत्य से मानी जाती हैं। 15वीं शताब्दी में इस नृत्य का विषय कृष्ण को माना गया। सामान्यतः युवतियों द्वारा यह नृत्य किया जाता हैं। रविन्द्रनाथ टैगोर ने शांतिनिकेतन में इस नृत्य को पुन: प्रचलित किया था। 

महिलाओं के द्वारा पाला और लहंगा प्रयोग में लिया जाता है जिसे कुमिन कहा जाता हैं। चहरे और सिर को पारदर्शी वस्त्रों से ढँका जाता है। पुरुष केसरिया रंग कि वेशभूषा धारण करते है जो कि कृष्ण का रूप होता है। इस नृत्य में चहरे कि अभिव्यक्ति के स्थान पर हाथ और पैरों कि मुद्राओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है 

नागबाँध मुद्रा – यह मणिपुरी नृत्य कि प्रमुख विशेषता है जिसमें शरीर को 8 कि वक्राकार आकृति में दर्शाया जाता है। 

प्रमुख कलाकार – गुरू बिपिन सिंह झावेरी बहनें – नैना, सुवर्णा और रंजना 

कत्थक

कथक शब्द से तात्पर्य है कथा कहना। यह उत्तरप्रदेश का पारम्परिक नृत्य माना जाता है। इसकी उत्पत्ति व्रजभूमि कि रासलीला से हुई हैं। कत्थक नृत्य पहले मन्दिरों में होता था। मुगल काल में यह दरबारी नृत्य में बदल गया। कत्थक वादन का मुख्य आकर्षण जुगलबंदी है जो तबला वादक और वृत्तक के बीच प्रतिस्पर्धा को बताता है इस नृत्य में कदमों के उपयोग पर विशेष बल दिया जाता है। यह नृत्य धीमी गति से तेज गति कि तरफ बढ़ता है। कहते के प्रयोग के साथ-साथ चहरे के भाव भी महत्वपूर्ण होते हैं। इस नृत्य के दौरान चुडीदार कुर्ता, लहंगा व चोली का प्रयोग किया जाता हैं। विभिन्न घरानों में यह नृत्य प्रचलित हुआ। 

लखनऊ घराना – नवाब वाजिद डाली के शासनकाल में यह नृत्य अपने चरम पर पहुंचा। 
जयपुर घराना – भानुजी के द्वारा इसकी शुरूआत की गई 
बनारस घराना – जानकी नाथ जी के संरक्षण में इसकी शुरूआत 

प्रमुख कलाकार – बिरजू महाराज, लच्छू महाराज’, सितारा देव दमियन्ती जोशी।

सोत्रिया नृत्य

15वीं शताब्दी में असम के वैष्णव संत शंकरदेव के द्वारा इस नृत्य से परिचय करवाया गया। नाट्‌यशास्त्र में इसका उल्लेख मिलता है। यह नृत्य शक्ति आंदोलन से प्रेरित है। पहले यह नृत्य पुरुष संतो के द्वारा किया जाता था जिन्हें भोकोट कहा जाता था। वर्तमान में महिलाओं के द्वारा भी यह नृत्य किया जाता है। 

भारत के लोक नृत्य

1) छउ नृत्य → यह पौराणिक कथाओं के वर्णन के लिए तथा युद्ध संबंधी संचालन के लिए किया जाने वाला नृत्य हैं। छडे शब्द कि उत्पत्ति छाया । परछाई से हुई हैं। इस नृत्य में मुखौटा लगाकर नृत्य किया जाता है।
छउ नृत्य की तीन शैलियाँ है-
झारखण्ड में सरायकेला छउ 
पश्चिम बंगाल में पुरुलिया छउ 
उड़ीसा में मयूरभंज छउ

मयूरभंज छउ में नृतक मुखौरे का इस्तेमाल नहीं करते हैं 

2010 में यूनेस्कों ने छउ को मानवता कि आपूर्त अमूर्त सांस्कृतिक विरासत सूची में शामिल किया है। 

2) गरबा
3) डांडिया 
4) धूमर 
5) कालबेलिया → यूनेस्कों ने वर्ष 2011 में कालबेलिया नृत्य को मानवता कि अमूर्त सांस्कृतिक विरासत में शामिल किया हैं। 
6) भांगड़ा → गिद्दा भांगडा का नारी संस्करण हैं। 
7) चाखा नृत्य → दशहरे के अवसर पर हिमाचल प्रदेश में यह नृत्य किया जाता है। 
8) जावरा → यह मध्यप्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में फसल करने के अवसर पर किया जाता है। 
9) मटकी → यह मालता में किया जाने वाला लोक नृत्य है। 
10) गौर मोरिया → छत्तीसगढ़ के बस्तर नामक स्थान पर जनजातियों के द्वारा यह नृत्य किया जाता है। इस नृत्य में भैंसो कि गतिविधियों का अनुसरण किया जाता है। 
11) अलकाप झारखण्ड, पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्रों में किया जाने वाला वा‌र्य प्रदर्शन अलकार्य कहलाता हैं। 
12) बिरहा नृत्य → यह नृत्य बिहार के ग्रामीण क्षेत्र में किया जाता हैं।
13) विनोद नृत्य
14) पाइका नृत्य → उड़ीसा, झारखण्ड व बिहार में किया जाने वाला यह एक मार्शल लोक प्रदर्शन हैं। पाइका एक लंबे भाले का रूप होता है। 
15) जाट-जारिंग → यह नृत्य बिहार के उत्तरी हिस्से में किया जाता है जिसे मिथिला क्षेत्र कहते हैं। 
16) नट और डंडा जात्रा → यह उड़ीसा में मशहूर है जिसमें संगीत का अनोखा मिश्रण मिलता है 
17) संगमा → यह नागाओं का युद्ध नृत्य हैं।
18) मईलइम यह केरल और तमिलनाडू का लोक नृत्य हैं। इसे मयूर नृत्य भी कहते हैं। युवतियों के द्वारा मयूर के समान तस्तु पहनकर यह नृत्य किया जाता हैं। 
19) कुम्मी केरल व तमिलनाडु में महिलाओं के द्वारा वृत्ताकार आकार में यह नृत्य किया जाता है जिसमें बाघ यंत्र का प्रयोग नहीं होता है 
20) पद‌थानि दक्षिणी केरल में मन्दिरों में किया जाने वाला युद्ध कला नृत्य है। पदयानि का अर्थ है “पैदल सेना कि पंक्ति “। 
21) कोई कोईोकली यह केरल के मन्दिरों में महिला व पुरुषों के द्वारा ओषम् के अवसर पर किया जाता है। 
22) बुट्टा बोम्मालु → उस शब्द का अर्थ हैं टोकरी में खिलौना” आंध्र प्रदेश का सबसे लोकप्रिय नृत्य हैं। 
24) थांग ता यह मणिपुर का प्रमुख नृत्य है। थांग का अर्थ है तलवार’ तथा ता का अर्थ है। भाला’ । 
25) शतका→ यह पंजाब का नृत्य है। 
26) सिलम भंग – तमिलनाडु
27) मर्दानी खेल – महाराष्ट्र सशस्त्र मार्शल कला 
28) मुष्टि युद्ध यह वाराणसी में निशस्त्र युद्ध कला है। 
29) कलरी पाय‌क यह केरल का नृत्य हैं। 
30) क‌ट्टु बरिसाईन यह सिलम भग के समान ही नृत्य है।

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