मानव जनन तंत्र अन्य जंतुओं की तुलना में ज्यादा विकसित तथा जटिल होते हैं, मानव एकलिंगी प्राणी है अर्थात मानव जनन तंत्र नर तथा मादा में अलग-अलग होते हैं। दोनो मानव जनन तंत्र में लैंगिक अंग तथा जनन ग्रंथियां मौजूद होती है।
- नर में प्राथमिक जनन अंग को वृषण तथा मादा में प्राथमिक जनन अंग को अंडाशय कहते हैं, साथ ही इन दोनों में सहायक लैंगिक अंग भी पाये जाते है जो युग्मकों के परिपक्वन, पोषण तथा परिवहन में सहायक होते हैं।
- मानव में मद (Oestrus / heat) चक्र नहीं होता है इसलिए ये गैर मौसमी प्रजनक कहलाते हैं, मानव मादा में रजोदर्शन (Menarche) के प्रारंभ होने पर संतान उत्पन्न करने की क्षमता विकसित होती है तथा रजोनिवृत्त (Menopause) होने पर यह क्षमता समाप्त हो जाती है।
- मानव जनन मे निषेचन की क्रिया होती है, मानव सजीवप्रजक (Viviparous) प्राणी होते हैं क्योंकि इनमें भ्रूण का विकास मादा के शरीर के अंदर होता है तथा यह शिशु को जन्म देती हैं।
नर जनन तंत्र की संरचना
वृषणकोष, वृषण, अधिवृषण, शुक्रवाहिनी, स्खलन नली, शुक्राशय, मूत्रमार्ग, शिश्न तथा जनन ग्रंथियां नर जनन तंत्र के मुख्य भाग होते हैं।
1. वृषणकोष (Scrotum)
वृषणकोष उदरगुहा के बाहर त्वचा का एक मोटा खोल होता है, यह उदरगुहा के साथ इंगुइनल नाल द्वारा जुड़ा रहता है। इसका तापमान शरीर के तापमान से 2⁰C – 3⁰C कम रहता है, यह तापमान शुक्राणुओं के निर्माण के लिए उपयोगी होता है।
अगर कभी किसी कारणवश आँत का कोई अंग इंगुइनल नाल से होते हुए वृषणकोष में आ जाता है तो इस अवस्था को इंगुइनल हर्निया कहते हैं, जो शल्य चिकित्सा द्वारा ठीक किया जा सकता है।
प्रत्येक वृषण संयोजी उत्तक का बना एक आवरण से ढँका रहता है, इस आवरण को ट्यूनिका अल्बूजीनिया कहते हैं। यह वृषण के अंदर कई सेप्टा बनाता है, जिससे यह कई खंडों में बँट जाता है। प्रत्येक खंड में दो-तीन कुंडलित नलिकाएँ पाई जाती है। इन नलिकाओं को शुक्रजनन नलिकाएँ (Seminiferous tubules) कहते हैं, ये नलिकाएँ जनन एपिथीलियम की कोशिकाओं से आच्छादित रहते हैं।
जनन एपीथिलियम की कोशिकाएं दो प्रकार के होते हैं – शुक्राणुकोशिकाजन (Spermatogonia) तथा सहायक कोशिका (Supporting cell) या सर्टोली की कोशिकाएं। शुक्राणुकोशिकाजन से नर युग्मक शुक्राणु बनते हैं जबकि सहायक कोशिका शुक्राणु को बनने में पोषण प्रदान करते हैं।
शुक्रजनन नलिकाओं के बीच-बीच में एक विशेष प्रकार की कोशिकाएं पाई जाती है, जिन्हें अंतराली कोशिकाएं या लाइडिग की कोशिकाएं कहते हैं। इन कोशिकाओं द्वारा नर हाॅर्मोन एंड्रोजेंन स्रावित होता है, यह हाॅर्मोन शुक्राणु जनन का नियंत्रण करता है।
2. अधिवृषण (Epididymis)
शुक्रजनननलिकाएँ अंदर की ओर छोटी-छोटी नलिकाओं का जाल बनाती है जिसे रेटे टेस्टिस करते हैं, ऐसे 10 – 20 नलिकाएँ मिलकर शुक्रनलिकाएं (Vasa efferentia) बनाते हैं। ये नलिकाएँ पुनः जुड़कर एक अत्याधिक कुंडली नली का निर्माण करती है जिसे अधिवृषण कहा जाता हैं। लगभग 6 मीटर लंबी यह कुंडलीत नली वृषण के अंदर किनारे पर स्थित होती है। इसका आकार यह घोड़े की नाल जैसा होता है।
अधिवृषण के अंदर शुक्राणु परिपक्व होते हैं।
3. शुक्रवाहिनी (Vas deferens)
अधिवृषण से लगभग 25 सेंटीमीटर लंबी एक नली निकलती है जिसे शुक्रवाही कहते हैं, इसकी दीवार मांसल तथा संकुचनशील होती है। प्रत्येक ओर के शुक्रवाहिनी वृषण के समानांतर आगे बढ़कर इंगुइनल नाल से उदरगुहा में पहुंचकर मूत्राशय के निकट मूत्रनली से एक फंदा बनाकर पुनः नीचे की ओर जाती है एंव शुक्राशय की नलिका से मिलकर एक स्खलन नाली का निर्माण करती है। दोनों और के स्खलन नली पुर:स्थ ग्रंथि से होकर मूत्राशय से आनेवाली मूत्रमार्ग में प्रवेश कर जाती है। शुक्रवाहिनी एवं मूत्र मार्ग से होकर शुक्राणु बाहर की ओर निकलते हैं।
4. शुक्राशय (Seminal vesicle)
यह एक लंबी, मांसल थैली के आकार की संरचना होती है जो शुक्राणुओं को सक्रिय करने वाले पदार्थों जैसे – साइट्रेट, फ्रुक्टोज, इनोसिटोल को स्रावित करती है।
5. शिश्न (Penis)
मूत्रमार्ग आगे बढ़कर शिश्न के मध्य से गुजरता है। शिश्न त्वचा से ढका हुआ एक बेलनाकार रचना होता है। शिश्न के अंदर का भाग अत्यंत संवहनीय और स्पंजी होता है। शिश्न का प्रयोग मादा में अंडवाहिनी के आधार पर शुक्राणुओं को जमा करने के लिए किया जाता है।
पुर:स्थ ग्रंथि (Prostate gland) :-
यह मूत्राशय के आधार तल पर स्थित एक गोलाकार, स्पंजी ग्रंथि होती है जो नलिकाओं द्वारा मूत्रमार्ग के उसी भाग में खुलती है जो भाग पुर:स्थ ग्रंथि के बीच से होकर गुजरता है। इस ग्रंथि से पुर:स्थ द्रव स्रावित होता है जो श्वेत, पतला तथा अम्लीय होता है जो शुक्राणुओं को सक्रिय बनाता है।
किसी कारणवश वयस्क पुरुष में अगर पुर:स्थ बड़ी हो जाती है तो मूत्रमार्ग में रुकावट आ जाती है, जिसके फलस्वरूप पेशाब करने में कष्ट होता है। कभी-कभी मूत्रमार्ग बंद भी हो जाता है इस अवस्था में शल्य क्रिया द्वारा पुर:स्थ ग्रंथि को निकालकर हटा दिया जाता है।
काऊपर ग्रंथि या बुलवाउरेथ्राल ग्रंथि (Cowper’s gland) :-
पुर:स्थ ग्रंथि के ठीक नीचे एक जोड़ी काऊपर ग्रंथि स्थित होती है जो मूत्रमार्ग में खुलती है। इस ग्रंथि द्वार क्षारीय द्रव का स्त्राव होता है जो मूत्र के अम्ल से शुक्राणुओं की रक्षा करता है।
मादा जनन तंत्र की संरचना
मानव मादा जनन तंत्र में दो अंडाशय, दो अंडवाहिनी, गर्भाशय, एक योनि, बाह्य जननेद्रिय एंव दो स्तन ग्रंथियाँ पाई जाती है।
अंडाशय (Ovary) :-
- प्रत्येक मानव मादा में उदरगुहा के निचले भाग में श्रोणिगुहा के दोनों ओर दाएं और बाएं एक-एक अंडाशय होते हैं। प्रत्येक अंडाशय एक अंडाकार रचना है जो पेरीटोनियम झिल्ली – मेसोवारियम द्वारा उदर के पृष्ठीय दीवार से चिपका रहता है।
- अंडाशय के अंदर अंडाणु का निर्माण होता है।
- अंडाशय के आंतरिक भाग को स्ट्रोमा कहते हैं जिसके अंदर जनन एपीथिलियम के कई कोशिकाएं पुटक (follicle) का निर्माण करते हैं, इससे एक कोशिका बड़ी होकर अंडकोशिका का निर्माण करती है और फिर ग्रेन्यूलोसा कोशिका से घिरकर प्राथमिक पुटक (Primary follicle) का निर्माण करती है। पुटक कोशिकाएं विभाजित होती है और दो स्तरों से अंडकोशिका को घेरकर द्वितीय पुटक (Secondary follicle) बनाती है।
- प्रत्येक अंडाशय संयोजी उत्तक के बना एक परत ट्यूनिका अल्बूजीनिया से आच्छादित रहता है। इसमें जनन एपीथिलियम का एक परत होता है, इसके कोशिका से अंडाणु विकसित होता है।
- अंड (Ovum) को घेरे एक अकोशिकीय परत रहती है जिसे जोना पेलुसिडा कहते हैं। इस परत के बाहर अरीय रूप में लंबी-लंबी पुटक कोशिकाएं होती है, इसे काॅरोना रेडिएटा कहते हैं।
- अंडाशय से अंडाणु को बाहर निकलने की क्रिया को अंडोत्सर्ग (Ovulation) कहते हैं। अंडोत्सर्ग प्रति 28 दिन पर लगभग 45 से 50 वर्ष की आयु तक होता रहता है। स्त्री अपने जनन काल में लगभग 450 अंडाणु का निर्माण करती है।
अंडवाहिनी (Fallopian tube or Oviduct) :-
- प्रत्येक स्त्री में दो अंडवाहिनी होती है।
- प्रत्येक अंडवाहिनी के शीर्ष भाग में उंगलियों के समान रचना बनता है जिसे फिंब्रि (fimbriae) कहते हैं। अंडाणु जब अंडाशय से बाहर निकलती है तब फिंब्रि द्वारा पकड़ लिया जाता है एवं अंडवाहिनी की गुहा में पहुंच जाती है।
- प्रत्येक अंडवाहिनी 12 सेंटीमीटर लंबी होती है। इसकी दीवार मांसल, संकुचनशील तथा इसके आंतरिक सतह पर सिलिया होती है जो अंडाणु को आगे बढ़ने में सहायता देती है, अंडवाहिनी से अंडाणु गर्भाशय में पहुंचती है।
गर्भाशय (Uterus) :-
मूत्राशय तथा मलाशय के बीच श्रोणी गुहा में एक थैली के सामान पेशीय रचना होती है जिसे गर्भाशय कहते हैं, सामने से देखने पर यह नाशपाती के आकार का दिखाई पड़ता है। इसका ऊपरी भाग को मुख्य भाग तथा निचला भाग जो सँकरा होता है को ग्रीवा (Cervix) कहते है।
गर्भाशय की भिति पेशीय तथा मोटी होती है, इस भिति के आंतरिक स्तर को म्यूकोसा या एंडोमेट्रियम कहते हैं। सर्विक्स नीचे की ओर योनि (Vagina) में खुलता है।
योनि (Vagina) :-
यह एक 7 से 10 सेंटीमीटर लंबी पेशीय नली है जिसके सामने मुत्राशय है तथा पीछे मलाशय स्थित होता है।
योनि बाहर एक छिद्र द्वारा खुलती है जिसे भग या वल्वा कहते हैं, भग एक पतली झिल्ली – हायमेन द्वारा ढँकी रहती है, हायमेन के बाद एक छोटे स्थान को वेस्टिब्यूल कहते हैं जो लघु भगोस्ट (labia minora) द्वारा घिरा रहता है।
बाह्य जननेंद्रिय (External genitalia) :-
भग के अंतर्गत वृहद भगोष्ठ (labia majora) जो एक जोड़ा बालयुक्त त्वचीय वलय रचना है, लेबिया मेजोरा के ठीक अंदर बालहीन एक जोड़ा वलय रचना होती है जिसे लेबिया माइनोरा या लघु भगोष्ठ कहते हैं जहां एक अत्यंत संवेदनशील तथा छिद्रहीन रचना होती है, ऐसी रचना को क्लाइटोरिस (Clitoris) कहते हैं। यह रचना नर में शिश्न (Penis) के समजात (Homologous) अंग माना जाता है।
स्तन ग्रंथि (Mammary gland) :-
स्तन ग्रंथि 15 से 20 संयुक्त नालिका कोष्ठिकीय प्रकार के ग्रंथियों द्वारा बनी 15 से 20 पालिकाओं (lobules) के समूह है। प्रत्येक पालिका एक दूसरे से घनाकार संयुक्त ऊतक तथा वसा ऊतक द्वारा अलग रहता है।
प्रत्येक पालिका से एक लेक्टिफेरॅस नलिका (Lactiferous duct) निकालकर एक छिद्र द्वारा स्तन के शीर्षभाग में खुलता है।