- जन्म – 590 ई.
- राजवंश – वर्द्धन (पुष्यभूति)
- शासनकाल – 606 ई.-647 ई.
- मृत्यु – 647 ई.
हर्षवर्धन गुप्तोत्तर काल का शासक था। 606 ई. में हर्षवर्धन थानेश्वर के सिंहासन पर बैठा। हर्षवर्धन के बारे में जानकारी के स्रोत है- बाणभट्ट का हर्षचरित, ह्वेनसांग का यात्रा विवरण और स्वयं हर्ष की रचनाएं।
हर्षवर्धन का अन्य नाम शिलादित्य था। हर्ष ने महायान बौद्ध धर्म को संरक्षण प्रदान किया। हर्ष ने 641 ई. में अपने दूत चीन भेजे तथा 643 ई. और 646 ई. में दो चीनी दूत उसके दरबार में आये। हर्ष ने 646 ई. में कन्नौज तथा प्रयाग में दो विशाल धार्मिक सभाओं का आयोजन किया।
हर्ष ने कश्मीर के शासक से बुद्ध के दंत अवशेष बलपूर्वक प्राप्त किये। हर्षवर्धन भगवान् शिव का भी भक्त था। वह सैनिक अभियान पर निकलने से पूर्व रूद्र शिव की आराधना किया करता था।
हर्षवर्धन शासक के साथ साथ साहित्यकार भी था। उसने प्रियदर्शिका, रत्नावली तथा नागानंद तीन ग्रंथों (नाटक) की रचना की। बाणभट्ट हर्ष का दरबारी कवि था। उसने हर्षचरित, कादम्बरी तथा शुकनासोपदेश आदि कृतियों की रचना की।
मालवा के शासक देवगुप्त एवं गौड़ शासक शशांक ने, ग्रहवर्मन की हत्या करके कन्नौज पर कब्ज़ा कर लिया। हर्षवर्धन ने शशांक को पराजित करके कन्नौज पर अधिकार करके उसे अपनी राजधानी बना लिया ।
हर्षवर्धन को बांसखेड़ा तथा मधुबन अभिलेखों में परम महेश्वर कहा गया है। ह्वेनसांग के अनुसार, हर्ष ने पड़ोसी राज्यों पर अपना कब्जा करके अपने नियंत्रण में कर लिया था।
दक्षिण भारत के अभिलेखों से यह स्पष्ट होता है की हर्ष सम्पूर्ण उत्तरी भारत का मालिक था। हर्ष के साम्राज्य का विस्तार उत्तर में थानेश्वर (पूर्वी पंजाब) से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी के तट तथा पूर्व में गंजाम से लेकर पश्चिम में वल्लभी तक फैला हुआ था।
भारतीय इतिहास में हर्ष का सर्वाधिक महत्त्व इसलिए भी है की वह उत्तरी भारत का अंतिम हिन्दू सम्राट था, जिसने आर्यावर्त पर शासन किया।
हर्ष का शासन प्रबंध
राजा के दैवीय सिद्धांत का प्रचलन था, लेकिन इसका यह तात्पर्य नहीं कि राजा निरंकुश होता था। वस्तुतः राजा के अनेक कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व होते थे, जिन्हें पूरा करना पड़ता था। हर्ष को एक प्रशासक एवं प्रजापालक राज्य के रूप में स्मरण किया जाता है।
नागानंद में उल्लेख आया है की हर्ष का आदर्श प्रजा को सुखी एवं प्रसन्न देखना था। केन्द्रीय शासन का जो नियंत्रण मौर्य युग में दिखाई देता है वह हर्ष युग में नहीं दिखाई देता। ह्वेनसांग के विवरण में हर्ष की छवि एक प्रजापालक राजा की उभरती है।
वहीँ राजहित कादम्बरी और हर्षचरित में उसे प्रजा का रक्षक कहा गया है। राजा को राजकीय कार्यों में सहायता देने के लिए एक मंत्रिपरिषद की व्यवस्था की गयी थी। मंत्रियों की सलाह काफी महत्व रखती थी।
राजा प्रशासनिक व्यवस्था की धुरी होता था। वह अंतिम न्यायाधीश और मुख्य सेनापति था। हर्ष के प्रशासन में अवंति, युद्ध और शांति का अधिकारी था। हर्ष की प्रशासनिक व्यवस्था गुप्तकालीन व्यवस्था पर आधारित थी।
बहुत से प्रशासनिक पद गुप्तकालीन थे, जैसे ‘संधिविग्रहिक‘ अपटलाधिकृत ‘सेनापति’ आदि। राज्य प्रशासनिक सुविधा के लिए ग्राम, विषय, भुक्ति, राष्ट्र में विभाजित था। भुक्ति का तात्पर्य प्रांत से था, विषय जिले के समान था। शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी।
महासामंत, महाराज, दौस्साधनिक, प्रभावर, कुमारामात्य, उपरिक आदि प्रांतीय अधिकारी थे। पुलिस विभाग का भी गठन किया गया था। चौरोद्धरजिक, दण्डपाशिक आदि पुलिस विभाग के कर्मचारी थे। हर्ष काल के अधिकारीयों को वेतन के रूप में जागीरें (भूमि) दी जाती थीं।
राज्य के विरुद्ध षड्यंत्र करने पर आजीवन कैद की सजा दी जाती थी। इसके आलावा अंग-भंग, देश निकाला, आर्थिक दण्ड भी लगाया जाता था। हर्ष ने अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिए एक संगठित सेना का गठन किया था। सेना में पैदल, अश्वारोही, रक्षारोही और हरिन्तआरोही होते थे।
हर्षवर्धन की जानकारी के स्रोत
- हर्ष चरित्र– लेखक बाणभट्ट ( 8 अध्याय )- इसे ऐतिहासिक विषय पर गद्यकाव्य लिखने का प्रथम प्रयास कहा जा सकता हैं।
- कादम्बरी–लेखक बाणभट्ट- हर्षकालीन सामाजिक धार्मिक जीवन का वर्णन मिलता है।
- हर्ष के ग्रन्थ (नाटक)– नागानंद, रत्नावली, प्रियदर्शिका।
- ह्वेनसांग पुस्तक– ‘सी-यू-की’
- काओसेंग चुवान– चीनी यात्री इत्सिंग की भारत यात्रा का विवरण। इसने बौद्ध धर्म के गहन अध्ययन के लिए 672-688 ई. तक भर्मण किया था। उसने बताया कि भारत को आर्यदेश कहा जाता है।
- बाँसखेड़ा ताम्रलेख (628 ई.), मधुबन ताम्रपत्र लेख (631 ई.) व पुलकेशिन-द्वितीय का ऐहोल का अभिलेख (634 ई.)
- मुहरें- नालन्दा से मिट्टी की व सोनीपत से तांबे की मुहरें मिली जिसमे हर्ष का पूरा नाम मिलता हैं।