1. आसवन विधि
किसी मिश्रित द्रव के अंश को उनके वाष्पन-सक्रियताओं (volatilities) के अन्तर के अनुसार उन्हें अलग-अलग करने की विधि को आसवन विधि कहा जाता है। यह अलग करने की एक भौतिक विधि होती है। यह कोई रासायनिक परिवर्तन अथवा रासायनिक अभिक्रिया नहीं होती है।
असवान विधि के प्रकार-
आसवन तीन प्रकार के होते है – प्रभाजित आसवन, निर्वात आसवन और भंजक आसवन।
प्रभाजित आसवन (fractional distillation) –
इसके द्वारा विलयन, अर्थात् मिश्रण, में से उन द्रवों को अलग अलग किया जा सकता है जिनके क्वथनांक पर्याप्त अलग हों। द्रवों का वाष्प प्रभाजित आसवन के संघनित्रों में इस प्रकार क्रमश: ठंडा किया जा सकता है कि ग्राही में पहले वे द्रव ही चुए जो सापेक्षत: ठंढा किया जा सकता है जो सापेक्षत: अधिक वाष्पवान् हों। इस काम के लिए जिन भभकों का इस्तेमाल किया जाता है उनमें ताप की मात्रा धीरे धीरे बढ़ती है।
निर्वात आसवन (vacuum distillation)–
इस आसवन के लिए ऐसी व्यवस्था की जाती है कि भभके और संघनित्र के भीतर की वायु पंप द्वारा बहुत कुछ बाहर निकल जाए। विलयन के ऊपर वायु की दाब निम्न होने पर विलायकों का क्वथनांक भी निम्न हो जाता है और वे सापेक्षत: अति न्यून ताप पर ही आसवित किए जा सकते हैं।
भंजक आसवन (destructive distillation)–
यह एक प्रकार का शुष्क आसवन होता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण कोयले का आसवन है। पत्थर के कोयले में पानी का अंश तो कम ही होता है, पर जब वह अधिक तप्त किया जाता है तो उसके प्रभंजन (टूटने) द्वारा अनेक पदार्थ बनते हैं जिन्हें भाप बनाकर उड़ाया और फिर ठंडा करके ठोस या द्रव किया जा सकता है। प्रभंजन में कुछ ऐसी गैसों का भी निर्माण होता है जो ठंडी होने पर द्रव या ठोस तो न बनें, पर गैस रूप में ही जिनकी उपयोगिता हो।
उदाहरणत के लिए, संभव है, इन गैसों का उपयोग हवा के साथ जलाकर प्रकाश अथवा उष्मा पैदा करने में किया जा सकता हो। पत्थर के कोयले से प्रभंजक आसवन से इस प्रकार की गैसों के अतिरिक्त क्रियोज़ोट, नैफ्थैलीन आदि पदार्थ प्राप्त किए जा सकते हैं। मिट्टी के तेल का भी प्रभंजक आसवन किया जा सकता है।
साधारण आसवन का उपयोग इत्र बनाने के लिए भी होता है। इत्र तैयार करने में भाप, आसवन का इस्तेमाल होता है। पानी की भाप के साथ साथ इत्र भी उड़ा दिए जाते हैं और संघनित्र में ठंडा करके पानी और इत्र का मिश्रण ग्राही में प्राप्त किया जाता है।
2. द्रवीकरण विधि
द्रवीकरण एक अयस्क या मिश्र धातु से धातुओं को पृथक करने के लिए एक धातुकर्म विधि है। धातुओं के मिश्रण को एक तिहाई के साथ पिघलाया जाता है, जिसके बाद मिश्रण को तरल निष्कर्षण द्वारा अलग अलग किया जाता है। इस विधि का उपयोग मुख्य रूप से सीसा का प्रयोग करके तांबे से चांदी को निकाला गया था, इसका उपयोग अयस्क से एंटीमनी खनिजों को हटाने और टिन को परिष्कृत करने के लिए भी होता है।
धातु की हानि
यह प्रक्रिया 100% सफल नहीं है। लूतेंथल, अल्टानाउ और सनक एंड्रियासबर्ग में 1857 से 1860 के बीच ऊपरी हर्ज़ में चांदी -25%, 25.1% सीसा और 9.3% तांबा खो गया। इसमें से कुछ स्लैग में खो गया है जो पुन: उपयोग करने योग्य नहीं है, कुछ को ‘जलाने’ के रूप में खो दिया गया है, और कुछ चांदी परिष्कृत तांबे के लिए खो गया है। इसलिए यह साफ़ है कि विभिन्न चरणों में खो जाने के लिए सीसे की निरंतर आपूर्ति की जरूरत थी।
3. वैद्युत परिष्करण विधि
विद्युत धातुकर्म की एक विधि है जिससे उत्तम तथा उच्च कोटि की शुद्धता की धातु प्राप्त की जाती है। इसमें जिस धातु की शुद्धिकरण करना होता है, उसे लवणीय अथवा अम्लीय विलयन में उपयुक्त आकार का ऐनोड, तथा उसी की शुद्ध निक्षिप्त धातु का कैथोड बनाकर लटका दिया जाता हैं। विद्युत्-अपघटन द्वारा बहुत ही शुद्ध धातु कैथोड पर लेप के रूप में मिलती है। बहुमूल्य धातुओं की अशुद्ध ऐनोड से उपलब्धि, साधारण वैद्युत्परिष्करण कला में, एक महत्वपूर्ण गौण परिष्करण है। बहुधा ताँबा, विस्मथ, सोना, चाँदी, सीसा और राँगा जलीय विलयन विद्युत् अपघटन से शुद्ध किए जाते हैं।
- इस विधि से Cu (कॉपर), Ag (सिल्वर), Au (गोल्ड) आदि धातुओं का शोधन होता है।
- एक आयताकार पात्र में से अशुद्ध Cu की मोटी परत को एनोड के रूप में और शुद्ध Cu की पतली परत को कैथोड के रूप में सुव्यवस्थित कर इसमें CuSO4 (कॉपर सल्फेट) का विलयन को भरा जाता है।
- विधुत धारा को प्रवाहित करने पर अशुद्ध Cu की परत से Cu2+ आयन विलयन में जाते है उतने ही Cu2+ आयन विलयन से शुद्ध कॉपर की प्लेट पर निक्षेपित हो जाते है।
- एनोड पर क्रिया Cu = Cu2+ + 2e–
- कैथोड पर क्रिया Cu2+ + 2e– = Cu
Note: Cu के विधुत अपघटनी शोधन में एनोड के नीचे Ag (सिल्वर) , Au (गोल्ड) , Pt (प्लैटिनम) , Se (सेलेनियम), Te (टेलुरियम) , Sb (एंटीमोनी) की अशुद्धियाँ इक्कठी हो जाती है जिसे एनोड पंक कहते है।
4. मंडल परिष्करण विधि:
यह विधि इस सिद्धान्त पर आधारित है – अशुद्धियाँ धातु की ठोस अवस्था की तुलना में गलित अवस्था में अधिक विलेय होती है। अशुद्ध धातु की छड़ लेकर उसके एक सिरे पर वृताकार गतिशील तापक व्यवस्थित कर देते है उसे धातु की छड़ के एक सिरे से दूसरे सिरे की ओर ले जाते है जिससे अशुद्धियाँ गलित मंडल में अधिक विलेय हो जाती है जैसे जैसे गतिशील तापक आगे की ओर सरकता जाता है वैसे वैसे गलित मंडल भी आगे की ओर सरकता जाता है जबकि शुद्ध धातु पीछे की ओर क्रिस्टलीकृत हो जाती है यह क्रिया एक ही दिशा में बार बार दोहराते है जिससे सभी अशुद्धियाँ धातु की छड़ के एक सिरे पर एकत्रित हो जाती है इस सिरे को काटकर अलग देते है।
Note: इस विधि द्वारा धातु तथा अर्द्धचालकों को अतिशुद्ध अवस्था में प्राप्त किया जाता है जैसे B (बोरोन) , Ga (गेलियम) , In (इंडीयम) , Si (सिलिकॉन) , Ge (जर्मेनियम)
5. गुरुत्व पृथक्करण विधि :-
यह विधि अयस्क तथा गैंग के कणों के आपेक्षिक घनत्व के अंतर पर निर्भर करती है। जब चूर्णी अयस्क को बहते हुए जल के साथ धोया जाता है तो अशुद्धियां हल्की होने के कारण जल के साथ बह जाती हैं तथा अयस्को के कण भारी होने के कारण तल में नीचे की ओर बैठ जाते हैं। अतः इस विधि द्वारा भारी अयस्क का सांद्रण किया जाता है। जैसे – टिन स्टोन (SnO2), लोहा स्टोन (Fe2O3) इत्यादि।
6. चुंबकीय पृथक्करण विधि :-
इस विधि द्वारा उन अयस्को का शुद्धिकरण किया जाता है जिनकी प्रकृति चुंबकीय या अनु चुंबकीय होती हैं। सामान्यतः इस विधि के द्वारा लोहे के अयस्को का सांद्रण किया जाता है।
इस विधि में एक चमड़े की पट्टी दो बेलनाकर धुरी पर घूमती हैं। यह दोनों बेलनाकार चुंबकीय गुणों से युक्त होते हैं। जब पट्टी पर अयस्को को डाला जाता है तो घूमती हुई पट्टी चुंबकीय पहिए से गुजरती है। उस समय चुंबकीय पदार्थ पहिए के पास इकट्ठे हो जाते हैं तथा अशुद्धिया पहिए से दूर जाकर गिरती हैं।
7. झाग प्लवन विधि :-
इस विधी में सल्फाइड अयस्को को शुद्ध किया जाता है। सल्फाइड अयस्क जैसे – Cu2S (कॉपर सल्फाइट), ZnS (जिंक सल्फाइड), FeS2 (फेरिक सल्फाइट), PbS (लेड सल्फाइड), HgS (मरक्यूरिक सल्फाइड) इत्यादि। इस विधि द्वारा सल्फाइड के अयस्को से अशुद्धियों को दूर किया जाता है।
झाग प्लवन विधि में निम्न पदार्थों को उपयोग किया जाता है-
झाग कारक :- झाग प्लवन विधि झाग बनाने वाले कारकों को झागकारक कहा जाता है। उदाहरण के लिए – चिड़ का तेल, यूके लिप्टस का तेल इत्यादि।
संग्राहक :- वे पदार्थ जो सल्फाइड अयस्को को जल की सतह पर तैरने में सहायक होते हैं संग्राहक कहलाते हैं। उदाहरण के लिए सोडियम एथिल जेंथेट इत्यादि।
फेन स्थाई कारक :- वह पदार्थ जो झाग को स्थायित्व प्रदान करते हैं। फेन स्थाई कारक कहलाते हैं।
झाग पल्लवन की विधि :- सर्वप्रथम एक पात्र में जल या चीड़ का तेल, पल्लवन कारक के मिश्रण में डाल दिया जाता है।
इस पत्र में एक विडोलक को लगाया जाता है। तथा इसे तेजी से घूर्णन किया जाता है। जिससे पात्र में झाग उत्पन्न होते हैं। पात्र के पेंदे में अशुद्धियां एकत्रित हो जाते हैं। तथा शुद्ध सल्फाइड अयस्क झाग के साथ उपस्थित होते हैं। पात्र की ऊपरी सतह पर उपस्थित शुद्ध सल्फाइड अयस्क युक्त झाग को दूसरे पात्र में एकत्रित कर दिया जाता है तथा इसे सुखाकर सल्फाइड अयस्को को पृथक कर लिया जाता है।