साइमन कमिशन (1927)

  • साइमन आयोग – 7 सदस्य
  • निर्माण- 8 नवम्बर 1927
  • भारत आया – 1928
  • मुख्य कार्य – मानटेंगयु चेम्स्फ़ो्द सुधार कि जॉच करना था

साइमन आयोग का निर्माण भारत में संविधान सुधारों के अध्ययन के लिये हुआ था। भारतीय आंदोलनकारियों में साइमन कमीशन वापस जाओ के नारे लगाए और खूब विरोध किया। साइमन कमीशन के विरुद्ध होने वाले इस आंदोलन में कांग्रेस के साथ साथ मुस्लिम लीग ने भी हिस्सा लिया। इसे साइमन आयोग (कमीशन) इसके अध्यक्ष सर जोन साइमन के नाम पर रखा गया था। साइमन आयोग के मुख्य सुझाव निम्नलिखित थे :-

  1. भारत में एक संघ की स्थापना हो जिसमें ब्रिटिश भारतीय प्रांत और देशी रियासत शामिल हों।
  2. केन्द्र में उत्तरदायी शासन की व्यवस्था हो।
  3. वायसराय और प्रांतीय गवर्नर को विशेष शक्तियाँ दी जाए।
  4. एक लचीले संविधान का निर्माण हो।

आयोग के सदस्य

  • सर जॉन साइमन , स्पेन वैली के लिए सांसद (लिबरल , अध्यक्ष)
  • क्लेमेंट एटली , लाइमहाउस के लिए सांसद (श्रम )
  • हैरी लेवी-लॉसन, 1 विस्काउंट बर्नहैम
  • एडवर्ड कैडोगन , सांसद फ़िंचली (कंज़र्वेटिव )
  • वरनोन हारटशोर्न , के लिए सांसद Ogmore ( श्रम )
  • जॉर्ज लेन-फॉक्स , सांसद बार्कस्टन ऐश (कंजर्वेटिव )
  • डोनाल्ड हॉवर्ड, तीसरा बैरन स्ट्रैथाकोना और माउंट रॉयल

साइमन कमीशन के सुझाव

साइमन कमीशन की रिपोर्ट में सुझाव दिया गया कि-

(1) प्रांतीय क्षेत्र में विधि तथा व्यवस्था सहित सभी क्षेत्रों में उत्तरदायी सरकार गठित की जाए।

(2) केन्द्र में उत्तरदायी सरकार के गठन का अभी समय नहीं आया।

(3) केंद्रीय विधान मण्डल को पुनर्गठित किया जाय जिसमें एक इकाई की भावना को छोड़कर संघीय भावना का पालन किया जाय। साथ ही इसके सदस्य परोक्ष पद्धति से प्रांतीय विधान मण्डलों द्वारा चुने जाएं।

साइमन कमिशन का विरोध और लाला लाजपत राय की मृत्यु

कमीशन के सभी सदस्य अंग्रेज थे जो भारतीयों का बहुत बड़ा अपमान था। चौरी चौरा की घटना के बाद असहयोग आन्दोलन वापस लिए जाने के बाद आजा़दी की लड़ाई में जो ठहराव आ गया था वह अब साइमन कमीशन के गठन की घोषणा से टूट गया। 1927 में मद्रास में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ जिसमें सर्वसम्मति से साइमन कमीशन के बहिष्कार का फैसला लिया गया जिसमें नेहरु, गांधी सभी ने इसका विरोध करनेका निर्णय लिया। मुस्लिम लीग ने भी साइमन के बहिष्कार का फैसला किया।

3 फरवरी 1928 को कमीशन भारत पहुंचा। साइमन कोलकाता लाहौर लखनऊ, विजयवाड़ा और पुणे सहित जहाँ जहाँ भी पहुंचा उसे जबर्दस्त विरोध का सामना करना पड़ा और लोगों ने उसे काले झंडे दिखाए। पूरे देश में साइमन गो बैक (साइमन वापस जाओ) के नारे गूंजने लगे।लखनऊ में हुए लाठीचार्ज में पंडित जवाहर लाल नेहरू घायल हो गए और गोविंद वल्लभ पंत अपंग। 

30 अक्टूबर 1928 को लाला लाजपत राय के नेतृत्व में साइमन का विरोध कर रहे युवाओं को बेरहमी से पीटा गया। पुलिस ने लाला लाजपत राय की छाती पर निर्ममता से लाठियां बरसाईं। वह बुरी तरह घायल हो गए और मरने से पहले उन्होंने बोला था कि “आज मेरे उपर बरसी हर एक लाठी कि चोट अंग्रेजोंं की ताबूत की कील बनेगी ” अंतत: इस कारण 17 नवंबर 1928 को उनकी मृत्यु हो गई।

क्रान्तिकारियों द्वारा बदला

वह दिन 30 अक्टूबर 1928 का था। संवैधानिक सुधारों की समीक्षा एवं रपट तैयार करने के लिए सात सदस्यीय साइमन कमीशन लाहौर पहुंचा। पूरे भारत में “साइमन गो बैक” के रंगभेदी नारे गूंज रहे थे। इस कमीशन के सारे ही सदस्य गोरे थे, एक भी भारतीय नहीं।

लाहौर में साइमन कमीशन के विरोध में प्रदर्शन का नेतृत्व शेर-ए-पंजाब लाला लाजपत राय ने किया। नौजवान भारत सभा के क्रांतिकारियों ने साइमन विरोधी सभा एवं प्रदर्शन का प्रबंध संभाला। जहां से कमीशन के सदस्यों को निकलना था, वहां भीड़ ज्यादा थी। लाहौर के पुलिस अधीक्षक स्कॉट ने लाठीचार्ज का आदेश दिया और उप अधीक्षक सांडर्स जनता पर टूट पड़ा। भगत सिंह और उनके साथियों ने यह अत्याचार देखा, किन्तु लाला जी ने शांत रहने को कहा।

लाहौर का आकाश ब्रिटिश सरकार विरोधी नारों से गूंज रहा था और प्रदर्शनकारियों के सिर फूट रहे थे। इतने में स्कॉट स्वयं लाठी से लाला लाजपत राय को निर्दयता से पीटने लगा और वह गंभीर रूप से घायल हुए। अंत में उन्होंने जनसभा में सिंह गर्जना की, मेरे शरीर पर जो लाठियां बरसाई गई हैं, वे भारत में ब्रिटिश शासन के कफन की अंतिम कील साबित होंगी। 18 दिन बाद 17 नवम्बर 1928 को यही लाठियां लाला लाजपत राय की शहादत का कारण बनीं।

भगत सिंह और उनके मित्र क्रांतिकारियों की दृष्टि में यह राष्ट्र का अपमान था, जिसका प्रतिशोध केवल “खून के बदले खून” के सिद्धांत से लिया जा सकता था। 10 दिसम्बर 1928 की रात को निर्णायक फैसले हुए। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव, जय गोपाल, दुर्गा भाभी आदि एकत्रित हुए। भगत सिंह ने कहा कि उसे मेरे हाथों से मरना चाहिए। आजाद, राजगुरु, सुखदेव और जयगोपाल सहित भगत सिंह को यह काम सौंपा गया।

17 दिसम्बर 1928 को उप-अधीक्षक सांडर्स दफ्तर से बाहर निकला। उसे ही स्कॉट समझकर राजगुरु ने उस पर गोली चलाई, भगत सिंह ने भी उसके सिर पर गोलियां मारीं। अंग्रेज सत्ता कांप उठी। अगले दिन एक इश्तिहार भी बंट गया, लाहौर की दीवारों पर चिपका दिया गया। लिखा था- हिन्दुस्थान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने लाला लाजपत राय की हत्या का प्रतिशोध ले लिया है और फिर “साहिब” बने भगत सिंह गोद में बच्चा उठाए वीरांगना दुर्गा भाभी के साथ कोलकाता मेल में जा बैठे। राजगुरु नौकरों के डिब्बे में तथा साधु बने आजाद किसी अन्य डिब्बे में जा बैठे। स्वतंत्रता संग्राम के नायक नया इतिहास बनाने आगे निकल गए।

कोलकाता में भगत सिंह अनेक क्रांतिकारियों से मिले। भगवती चरण वहां पहले ही पहुंचे हुए थे। सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने का विचार भी कोलकाता में ही बना था। इसके लिए अवसर भी शीघ्र ही मिल गया। केन्द्रीय असेंबली में दो बिल पेश होने वाले थे- “जन सुरक्षा बिल” और “औद्योगिक विवाद बिल” जिनका उद्देश्य देश में उठते युवक आंदोलन को कुचलना और मजदूरों को हड़ताल के अधिकार से वंचित रखना था।

भगत सिंह और आजाद के नेतृत्व में क्रांतिकारियों की बैठक में यह फैसला किया गया कि 8 अप्रैल 1929 को जिस समय वायसराय असेंबली में इन दोनों प्रस्तावों को कानून बनाने की घोषणा करें, तभी बम धमाका किया जाए। इसके लिए श्री बटुकेश्वर दत्त और विजय कुमार सिन्हा को चुना गया, किन्तु बाद में भगत सिंह ने यह कार्य दत्त के साथ स्वयं ही करने का निर्णय लिया।

ठीक उसी समय जब वायसराय जनविरोधी, भारत विरोधी प्रस्तावों को कानून बनाने की घोषणा करने के लिए उठे, दत्त और भगत सिंह भी खड़े हो गए। पहला बम भगत सिंह ने और दूसरा दत्त ने फेंका और “इंकलाब जिंदाबाद” का नारा लगाया। एकदम खलबली मच गई, जॉर्ज शुस्टर अपनी मेज के नीचे छिप गया। सार्जेन्ट टेरी इतना भयभीत था कि वह इन दोनों को गिरफ्तार नहीं कर पाया। दत्त और भगत सिंह आसानी से भाग सकते थे, लेकिन वे स्वेच्छा से बंदी बने। उन्हें दिल्ली जेल में रखा गया और वहीं मुकदमा भी चला।

इसके बाद दोनों को लाहौर ले जाया गया, पर भगत सिंह को मियांवाली जेल में रखा गया। लाहौर में सांडर्स की हत्या, असेंबली में बम धमाका आदि मामले चले और 7 अक्टूबर 1930 को ट्रिब्यूनल का फैसला जेल में पहुंचा। जो इस प्रकार था-भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी, कमलनाथ तिवारी, विजय कुमार सिन्हा, जयदेव कपूर, शिव वर्मा, गया प्रसाद, किशोर लाल और महावीर सिंह को आजीवन, कुंदनलाल को सात तथा प्रेमदत्त को तीन साल का कठोर कारावास। दत्त को असेंबली बम कांड के लिए उम्रकैद का दंड सुनाया गया।

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