- शुरू -1903
- पूना एवं बंबई में इस आंदोलन का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक।
- पंजाब में लाल लाजपत राय एवं अजीत सिंह।
- दिल्ली में सैय्यद हैदर रजा।
- मद्रास में चिदम्बरम पिल्लई।
- कारण – सरकार द्वारा बंगाल विभाजन के निर्णय के विरोधस्वरूप चलाया गया था।
राष्ट्रवाद का उदय
- 19वीं शताब्दी में ही राष्ट्रीय पहचान और राष्ट्रीय चेतना की अवधारणा का शुरू हो गया था।
- सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारकों ने लोगों को अपनी राष्ट्रीय पहचान को परिभाषित करने और हासिल करने के लिए प्रेरित किया था।
बढ़ते राष्ट्रवाद का कारण
- ब्रिटिश मंशा को पहचानना: ब्रिटिश सरकार भारतीयों की किसी भी महत्त्वपूर्ण मांग को नहीं मान रही थी।
- 1890 के दशक की आर्थिक दुर्दशा ने औपनिवेशिक शासन के शोषक स्वरूप को उजागर करने का कार्य किया।
- विश्वास में वृद्धि: इस भावना ने आग पकड़ना आरम्भ कर दिया कि अगर स्वतंत्रता प्राप्त करनी है तो औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ इस लड़ाई में आम जनता को शामिल करना होगा।
- बढ़ती जागरूकता: शिक्षा के प्रसार से जनता में ब्रिटिश नीतियों के प्रति जागरूकता बढ़ी।
- बढ़ती बेरोज़गारी और अल्परोज़गार में वृद्धि और परिणामी गरीबी ने कट्टरपंथी राष्ट्रवादियों के मध्य असंतोष की भावना को और अधिक बढ़ा दिया।
- अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव: भारतीय राष्ट्रवादी आयरलैंड, जापान, मिस्र, तुर्की, फारस और चीन में हुए राष्ट्रवादी आंदोलनों से प्रेरित थे जिन्होंने यूरोपीय अजेयता के मिथकों को नष्ट कर दिया।
- लॉर्ड कर्ज़न की रूढ़िवादी नीतियांँ: लॉर्ड कर्ज़न के शासन के दौरान अपनाए गए प्रशासनिक उपायों जैसे-भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम, कलकत्ता निगम अधिनियम और मुख्य रूप से बंगाल विभाजन के कारण देशव्यापी विरोध देखने को मिला।
- स्वदेशी आंदोलन, गांधी युग से पूर्व के सबसे सफल आंदोलनों में से एक था जो बंगाल विभाजन के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुआ।
स्वदेशी आंदोलन की पृष्ठभूमि:
- इस आंदोलन की जड़ें विभाजन विरोधी आंदोलन में थीं, जो लॉर्ड कर्ज़न के बंगाल प्रांत को विभाजित करने के फैसले का विरोध करने के लिये शुरू किया गया था।
- बंगाल के अन्यायपूर्ण विभाजन को लागू होने से रोकने हेतु सरकार पर दबाव बनाने के लिये नरमपंथियों द्वारा विभाजन विरोधी अभियान को शुरू किया गया था।
- सरकार को लिखित में याचिकाएंँ दी गईं, जनसभाओं का आयोजन किया गया तथा हिताबादी , संजीवनी और बंगाली जैसे समाचार पत्रों के माध्यम से विचारों का प्रसार किया गया।
- विभाजन के कारण बंगाल में विभाजन विरोधी सभाओं का आयोजन किया गया, जिसके तहत सबसे पहले विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का संकल्प लिया गया।
स्वदेशी आंदोलन की उद्घोषणा:
- अगस्त 1905 में कलकत्ता के टाउनहॉल में एक विशाल बैठक आयोजित की गई जिसमें स्वदेशी आंदोलन की औपचारिक घोषणा की गई।
- मैनचेस्टर में निर्मित कपड़ों तथा लिवरपूल के नमक जैसे सामानों के बहिष्कार का संदेश प्रचारित किया गया।
- विभाजन के लागू होने के बाद बंगाल के लोगों ने वंदे मातरम् गीत गाकर व्यापक विरोध प्रदर्शित किया।
- रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा ‘आमार शोनार बांग्ला’ की रचना की गई।
- लोगों ने एकता के प्रतीक के रूप में एक-दूसरे के हाथों में राखी बांँधी।
- हालांँकि यह आंदोलन मुख्य रूप से बंगाल तक ही सीमित था, लेकिन भारत के कुछ अलग-अलग हिस्सों में भी इसका प्रसार देखा गया –
- बाल गंगाधर तिलक के नेतृत्व में पूना और बॉम्बे में।
- लाला लाजपत राय और अजीत सिंह के नेतृत्व में पंजाब में।
- सैयद हैदर रजा के नेतृत्व में दिल्ली में।
- मद्रास में चिदंबरम पिल्लई के नेतृत्व में।
कॉन्ग्रेस की प्रतिक्रिया:
- वर्ष 1905 में भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस द्वारा एक बैठक का आयोजन किया गया जिसमे बंगाल विभाजन की निंदा करने और विभाजन विरोधी और स्वदेशी आंदोलन का समर्थन करने हेतु संकल्प लिया गया।
- कट्टरपंथी राष्ट्रवादी चाहते थे कि आंदोलन का प्रसार बंगाल के बाहर भी हो तथा इसे विदेशी सामानों के बहिष्कार से आगे भी बढाया जाए।
- हालांँकि, कॉन्ग्रेस में हावी नरमपंथी इस आंदोलन को बंगाल से बाहर प्रसारित करने के पक्ष में नहीं थे।
- वर्ष 1906 में दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता में कलकत्ता में कॉन्ग्रेस का अधिवेशन आयोजित किया गया, जिसमें स्वशासन या स्वराज को INC के लक्ष्य के रूप में घोषित किया गया।
उग्रवादी/कट्टरपंथी राष्ट्रवादियों का उदय:
- वर्ष 1905 से 1908 तक बंगाल में स्वदेशी आंदोलन पर चरमपंथियों/उग्रवादी (या गरम दल) का प्रमुख प्रभाव रहा, इसे “जुनूनी राष्ट्रवादियों के युग” के रूप में भी जाना जाता है।
- लाला लाजपत राय , बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल इस कट्टरपंथी समूह के महत्त्वपूर्ण नेता थे।
- कट्टरपंथी समूह के उदय के कुछ कारण:-
- उदारवादी नेतृत्व में स्वदेशी आंदोलन की विफलता।
- पूर्वी बंगाल और पश्चिमी बंगाल की सरकारों की विभाजनकारी रणनीति।
- आंदोलन को दबाने हेतु अंग्रेजों के हिंसक उपाय।
- उग्रवादियों द्वारा बहिष्कार के अलावा सरकारी स्कूलों और कॉलेजों, सरकारी सेवाओं, अदालतों, विधान परिषदों, नगर पालिकाओं, सरकारी उपाधियों आदि के बहिष्कार का आह्वान किया गया।
- तिलक ने नारा दिया “स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा”
जन-भागीदारी:
- छात्र: स्कूल और कॉलेज़ के छात्रों की आंदोलन में सबसे अधिक सक्रिय भागीदारी थी।
- छात्रों की भागीदारी बंगाल, पूना (महाराष्ट्र), गुंटूर (आंध्र प्रदेश), मद्रास और सेलम (तमिलनाडु) में भी दिखाई दी।
- पुलिस द्वारा छात्रों के प्रति दमनकारी रवैया अपनाया गया। दोषी पाए गए छात्रों पर जुर्माना लगाया गया उन्हें निष्कासित कर दिया गया, पीटा गया, गिरफ्तार किया गया तथा सरकारी नौकरियों और छात्रवृत्ति हेतु अयोग्य घोषित किया गया।
- महिलाएंँ: परंपरागत रूप से घरेलू महिलाओं ने भी आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया।
- मुस्लिम वर्ग का रुख: कुछ मुसलमानों ने आंदोलन में भाग लिया, हालांँकि अधिकांश उच्च और मध्यम वर्ग के मुसलमान आंदोलन से दूर ही रहे।
- मुसलमानों द्वारा विभाजन का समर्थन इस विश्वास पर किया गया कि बंगाल विभाजन के परिणामस्वरूप उन्हें मुस्लिम बहुल पूर्वी बंगाल क्षेत्र प्रदान किया जाएगा।
स्वदेशी आंदोलन का प्रभाव:
- आयात में गिरावट: आंदोलन के परिणामस्वरूप वर्ष 1905-1908 के दौरान विदेशी आयात में उल्लेखनीय गिरावट आई।
- उग्रवाद का विकास: आंदोलन के परिणामस्वरूप युवाओं में चरम राष्ट्रवाद का विकास हुआ जो हिंसा के माध्यम से ब्रिटिश प्रभुत्व को तुरंत समाप्त करना चाहता था।
- मॉर्ले-मिंटो सुधार: वर्ष 1909 में मॉर्ले-मिंटो सुधारों के रूप में ब्रिटिश शासन को भारतीयों को कुछ रियायतें देने हेतु मजबूर किया।
- गोपाल कृष्ण गोखले ने इन सुधारों की रूपरेखा तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- स्वदेशी संस्थानों की स्थापना: रवींद्रनाथ टैगोर के शांतिनिकेतन से प्रेरित होकर, बंगाल नेशनल कॉलेज और देश के विभिन्न हिस्सों में कई राष्ट्रीय स्कूल और कॉलेज स्थापित किये गए।
- अगस्त 1906 में राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली को व्यवस्थित करने हेतु राष्ट्रीय शिक्षा परिषद की स्थापना की गई थी।
- तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा देने हेतु बंगाल प्रौद्योगिकी संस्थान की स्थापना की गई।
- स्वदेशी उद्योगों में वृद्धि: इससे देश में स्वदेशी कपड़ा मिलों, साबुन और माचिस की फैक्ट्रियों, चर्मशोधन कारखानों, बैंकों, बीमा कंपनियों, दुकानों आदि की स्थापना हुई।
- इसने भारतीय कुटीर उद्योग को भी पुनर्जीवित किया।
- भारतीय उद्योगों ने स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग को पुनर्जागरण के साथ उत्थान से भी जोडकर देखा।
- विदेशी खरीदारों और विक्रेताओं का बहिष्कार: कपड़े, चीनी, नमक और विभिन्न अन्य विलासिता की वस्तुओं सहित विदेशी वस्तुओं का न केवल बहिष्कार किया गया, बल्कि उन्हें जलाया भी गया।
- स्वदेशी आंदोलन में न केवल खरीदारों बल्कि विदेशी सामानों के विक्रेताओं का भी सामाजिक बहिष्कार किया गया।
स्वदेशी आंदोलन का क्रमिक दमन:
- सरकार द्वारा दमन: वर्ष 1908 तक सरकार की हिंसक कार्यवाही द्वारा स्वदेशी आंदोलन के एक चरण को लगभग समाप्त कर दिया गया।
- नेताओं और संगठन की अनुपस्थिति: आंदोलन एक प्रभावी संगठन बनाने में विफल रहा। सरकार द्वारा अधिकांश नेताओं को या तो गिरफ्तार कर लिया गया था या निर्वासित कर दिया गया जिससे आंदोलन नेतृत्वविहीन हो गया।
- प्रभावी नेताओं की अनुपस्थिति के कारण आंदोलन में उच्च जन-भागीदारी को बनाए रखना एक कठिन कार्य था।
- आंतरिक संघर्ष: नेताओं के मध्य आंतरिक संघर्षों और विचारधाराओं में अंतर ने आंदोलन को नुकसान पहुंँचाया।
- सीमित विस्तार: आंदोलन किसानों तक पहुंँचने में विफल रहा तथा यह केवल उच्च और मध्यम वर्ग तक ही सीमित था।
बंगाल विभाजन की घोषणा को वापिस लेना:
- वर्ष 1911 में लाॅर्ड हार्डिंग द्वारा बंगाल विभाजन को मुख्य रूप से क्रांतिकारी आतंकवाद पर अंकुश लगाने हेतु रद्द कर दिया गया था।
- बिहार और उड़ीसा को बंगाल से अलग कर दिया गया तथा असम को एक अलग प्रांत बना दिया गया।
- मुस्लिम वर्ग इस घोषणा से खुश नहीं था, परिणामस्वरूप अंग्रेज़ों ने अपनी प्रशासनिक राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित कर दिया, क्योंकि यह स्थान मुस्लिम गौरव से जुड़ा था।