जहाँगीर काल में चित्रकला

जहाँगीर (1605-1627) का पूरा नाम ‘ नूरूधीन सलीम जहाँगीर’ है। इसका जन्म 30 अगस्त 1569 ई. में फतहपुर सीकरी में हुआ। वह ‘ शेख सलीम चिश्ती’ की कुटिया में पैदा हुआ। जहाँगीर की मां राजा भारमल की बेटी ‘ मरियम जमानी थी। आरंभिक जीवन में उसका चरित्र ठीक नहीं था।

वह शराब व आवारागर्दी के लिए बदनाम रहता था। सम्राट की गद्दी पर बैठने के बाद उसके स्वभाव में सुधार आया। उसका विवाह राजा युवा जहाँगीर उदयसिंह की पुत्री जोधाबाई से किया गया। जहाँगीर बडे ही आकर्षक व्यक्तित्व का था परंतु उसके चरित्र में अच्छी बुरी आदतों का मिश्रण था।

” रायकृष्णदास जी ने जहाँगीर के बारे में लिखा है, ”जहाँगीर बड़ा ही सहृदय, सुरूचि संपन्नपरले दर्जे का चित्र-प्रेमी, प्रकृति-सौंदर्य-उपासक,वृक्ष-खग-मृग-विज्ञानी, संग्रहकर्ता, विश्द वर्णनकार और सबके ऊपर पक्का जिज्ञासु,निसर्ग-निरीक्षक और प्रज्ञावादी था।”

जहाँगीर अपने शाहजादा काल में सलीम कहलाते थे। उस समय आका रिज़ा नामक चित्रकार के नेतृत्व में आगरा में एक चित्रशाला प्रारंभ की थी। इस चित्रशाला में तीव्रता से कलाकार काम करने लगे। आका रिज़ा अनंत, अबुल हसन, बिशनदास आदि ने मिल कर अनवरे-सुहाइली की पांडुलिपि का काम शुरू किया जो सलीम के सम्राट जहाँगीर बन जाने पर समाप्त हुई।

तत्कालीन चित्रों  के रंग में फीकापन तथा रचना में सादगी थी। धीरे-धीरे चित्रकला में निखार आने लगा और जहाँगीर के सम्राट बन जाने तक मुगल शैली पराकाष्ठा पर पहुंच गई। इस समय प्रयुक्त वर्ण, सधी हुई रेखाएँ, यर्थाथवादी योजना, अनुपातिक अंग-प्रत्यंग विश्वसनीय है।

सचित्रित ग्रंथों के अलावा सम्राट द्वारा चयनित विषय चित्र भी बहुतायात में बनने लगे। अकबर के समान उदार न होने के कारण इस समय धार्मिक चित्रों का अभाव हो गया व सम्राट के जीवन और उसकी रूचि के आधार पर चित्रण होने लगे। ऐतिहासिक कथाओं का स्थान प्राकृतिक चित्रों ने ले लिया था।

इसके अतिरिक्त दरबारी जीवन के दृश्यों और घटनाओं को भी व्यापक रूप में चित्रित किया गया। ‘ जहाँगीरनामा’ में जहाँगीर का आत्मचरित लिखा गया था। यह साहित्यिक दृष्टिकोण से बाबरनामा के जितनी श्रेष्ठ नहीं था, परंतु इस पर आधारित चित्रों में वही रोचकता थी जो बाबर के शब्द चित्रों में पाई गई थी। इसकी प्रथम प्रति जहाँगीर ने पुत्र शाहजहाँ को भेंट की, जो उसके शासनकाल के चौदहवें वर्ष में तैयार हुई थी। इसके साथ ही पन्द्रहवें वर्ष में तैयार ‘जहाँगीरनामा’ की दूसरी प्रति अन्य बेटे को दी जहाँगीर अपने भीतरी क्रोध, दया तथा प्रेम भावना को दर्शाने हेतु भी चित्र बनवाया करता था।

उदाहरण के लिए यदि किसी की गलती पर उसे क्रोध आ जाया करता, तो उसकी निंदा करने के लिए भी उसका चित्र बनवा लेता था। इसके अतिरिक्त किसी जीव की दयनीय अवस्था देखकर भी चित्र द्वारा सहानुभूति प्रकट करता था। उसने ‘ तुजुक-ए-जहाँगीर’ में वर्णित एक दरबारी ‘ इनायत खाँ’ की दुर्बल स्थिति की तस्वीर बनवाई थी।

पशु प्रेम के कारण एक ‘मंसाराम’ नाम के हिरण की समाधि पर मकबरा एवं मूर्ति भी बनवाई थी। इस समय तक मुगल शैली ईरानी प्रभाव से पूर्णतः मुक्त हो गई थी परंतु यूरोपीय प्रभाव देखाने को मिला। इसके चलते चित्र में त्रि-आयामी प्रदर्शित होने लगा था।

भारत में ईसाई धर्म प्रचारक मंडलियों के द्वारा इन चित्रों का आगमन होने लगा। जहाँगीर के समय ये चित्र काफी मात्रा में आने लगे थे। जहाँगीर को सर टॉमस रो ने अनेक चित्र भेंट किये। इन्हीं के दिये हुए यूरोपियन चित्रों को ग्रहण करके कलाकारों को प्रेरित किया।

वह उनका संग्रह करने के साथ प्रतिकृतियाँ भी तैयार करवाता था। साथ ही स्वतंत्र चित्रों में इनका प्रभाव डाला जाने लगा था। चित्रों में ऊपर की ओर उड़ती पंख वाली आकृतियाँ और सम्राटों के मुख के साथ प्रभामंडल का चित्रण यूरोपीय प्रभाव को दर्शाता है। ‘ जहाँगीर एक स्याह मानव के सर पर निशाना साधते हुए’ चित्र में जो सांकेतिक निरूपण दिखाई देता है वह भी पाश्चात्य प्रभाव है।

इस समय चित्रकला के क्षेत्र में बहुत अधिक विस्तार हुआ। इसी प्रभाव के कारण जहाँगीरकालीन चित्रों में स्वाभाविकता आई थी। प्रारंभिक चित्र देखकर तो ऐसा प्रतीत होता था मानो ऊँचाई से देख रहे हों। बाद में इसके स्थान पर छायांकन अधिक होने लगा। पाश्चात्य प्रभाव के कारण सौम्य वर्ण योजना भी मुगल शैली की विशेषता रही।

तानों और पोत के प्रयोग से चित्र में वास्तविकता नज़र आई। पाश्चात्य प्रभाव होने के बावजूद भी चित्रों में मौलिक गुण विद्यमान रहे एवं उसमें भारतीयता अधिक दिखाई दी। जहाँगीर के चित्र प्रेम को दर्शाने वाले अनेक उदाहरण प्राप्त हुए हैं। प्रथम तो वह कला और कलाकार की परख करने में बहुत कुशल था, उसका कहना था “वह कोई भी चित्र देख कर बता सकता है की चित्र किसने बनाया है यदि एक ही चित्र में अलग-अलग चित्रकारों ने कार्य किया है, तो भी बता देता की चित्र में किसने कौन सा भाग चित्रित किया है”। दूसरा इंग्लैंड के राजदूत सर टामस रो द्वारा भेंट किए गये तेल चित्र की हु-ब-हु नकल उतरवा कर उन्हें दिखाई। इसे देख वह आश्चर्यचकित रह गये और असली कृति को भी पहचान न सके।

जब संम्राट की रूचि की यह स्थिति हो तो कला में विकास होनास्वभाविक ही है। जहाँगीर को पशु-पक्षियों के चित्रों में बहुत अधिक रूचि थी। वह जो भी अनजान व अद्भुत पशु-पक्षी देखता तो उसका चित्रण तुरंत ही करवाता था। संसार प्रसिद्ध ‘ बाज’ व ’टर्की कॉक’ इसके प्रमुख उदाहरण हैं।

पशु-पक्षी चित्रों को एलबम में स्थान देने के लिए बड़ी से बड़ी रकम भी खर्च करने को तैयार रहता था जहाँगीरकालीन चित्रों में इतनी स्वाभाविकता और वास्तविकता है कि वे आधुनिक तकनीक से खिंची फोटो के समान लगते हैं।

चित्र रचना में ऐसी बारीकियां हैं की पशु-पक्षियों की जाति व उपजाति भी पहचान सकते हैं। वह जीवों के प्रति इतनी दया भावना रखता था की एक बार ठण्डे पानी में कांपते हाथी के लिए पानी गर्म करवा दिया था।

मुगल काल में हाशिये को चित्रकला की एक प्रधान शाखा की श्रेणी में रखा गया। सत्रहवीं शताब्दी के मुगल कालीन चित्रों में हांशिया चित्रण को मुख्य चित्र के समान ही महत्व दिया गया था। जहाँगीर के दरबार में हिन्दु, मुस्लिम व फारसी कलाकार थे।

फारसी चित्रकारों में ‘ फारूख बेग’, ‘ आकारिजा’, ‘ अबुलहसन’, मोहम्मद नादिर ‘,’ मोहम्मद मुराद ‘ आदि तथा हिन्दु चित्रकारों में मंसूर गोवर्धन, बिशनदास, दौलत, मनोहर आदि थे। उसने अबुल हसन को’ नादिर-उल-जमा ‘ व मंसूर को’ नादिर-उल-असर ‘ की उपाधि प्रदान की। जहाँगीर के समय को मुगल काल का स्वर्ण युग कहा जाता है। जहाँगीर की मृत्यू कश्मीर से लौटते वक्त लाहौर में हुई। उसके साथ ही कला का स्वरूप भी धीरे धीरे मिटने लगा।

जहाँगीर कालीन चित्रों की विशेषताऐं:

  1. जहाँगीर काल में चित्रकला ईरानी प्रभाव से मुक्त हो गई थी।
  2. चित्रों में यर्थाथता पहले से भी अधिक दिखने लगी।
  3. हाशियों की सुंदरता बहुत बढ़ गई। पशु-पक्षियों, बेल-बूटों, जन जीवन दृश्य आदि को हाशियों में अलंकरण के रूप में बनाया जाता था।
  4. मिश्रित रंगों व एक ही रंग की तानों का प्रयोग होने लगा।
  5. छाया-प्रकाश व स्वर्ण रंगों का भी प्रयोग अधिक होने लगा।
  6. दार्टिक परिप्रेक्ष्य व स्थितिजन्य लघुता का सुंदर प्रयोग हुआ।
  7. एक चश्म चहरे बनाये गये।

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