- स्थापना- 1826 ई.
- संस्थापक – सैयद अहमद बरेलवी
- परिणाम – सिख समुदाय से संघर्ष हुआ जिसमें सैयद अहमद मारा गया
वहाबी आन्दोलन का प्रारम्भ एक इस्लामी पुनरुत्थान आन्दोलन के रूप में हुआ। इस आन्दोलन को तरीका-ए-मुहम्मदी अथवा वल्लीउल्लाही आन्दोलन भी कहा जाता है। यह एक देश विरोधी और सशस्त्र आन्दोलन था जो शीघ्र ही पूरे देश में फ़ैल गया। वहाबी आन्दोलन एक व्यापक आन्दोलन बन चुका था और इसकी शाखाएँ देश के कई हिस्सों में स्थापित की गयीं। इस आन्दोलन को बिहार और बंगाल के किसान वर्गों, कारीगरों और दुकानदारों का समर्थन प्राप्त हुआ। यद्यपि यह एक धार्मिक आन्दोलन था पर कालांतर में इस आन्दोलन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आवाजें उठायीं जाने लगीं। ब्रिटिश शासन की समाप्ति तो इस आन्दोलन का उद्देश्य था ही, साथ-साथ सामजिक पुनर्गठन और सामाजिक न्याय की माँग भी वहाबी आन्दोलन की मुख्य माँगे थीं।
वहाबी आन्दोलन का संस्थापक और उसके कार्य
वहाबी आन्दोलन का संस्थापक सैयद अहमद बरेलवी (1786-1831 ई.) था। यह रायबरेली (उत्तर प्रदेश) का रहने वाला था। इसका जन्म शहर के एक नामी-गिरामी परिवार में हुआ था जो पैगम्बर हजरत मुहम्मद का वंशज मानता था। यह 1821 ई. में मक्का गया और जहाँ इसे अब्दुल वहाब नामक इंसान से दोस्ती हुई। अब्दुल वहाब के विचारों से अहमद बरेलवी बहुत प्रभावित हुआ और एक “कट्टर धर्मयोद्धा” के रूप में भारत वापस लौटा। अब्दुल वहाब के नाम से इस आन्दोलन का नाम वहाबी आन्दोलन रख दिया गया।
सैयद अहमद बरेलवी एक और इंसान से बहुत प्रभावित हुआ जिसका नाम संत शाह वल्लीउल्लाह था। यह दिल्ली में रहता था और भारत में फिर से इस्लाम का प्रभुत्व हो, इसका इच्छुक था। वे भारत से अंग्रेजों को हटाकर फिर से इस्लामिक शासन लाना चाहते थे। उनका मानना था कि भारत को “दार-उल-हर्ष (दुश्मनों का देश)” नहीं बल्कि भारत को “दार-उल-इस्लाम (इस्लाम का देश)” बनाना है जिसके लिए अंग्रेजों से धर्मयुद्ध करना अनिवार्य है। अंग्रेजों को किसी भी प्रकार से सहयोग देना इस्लाम-विरोधी कार्य है, ऐसा उनका मानना था. इस बात का अहमद पर काफी प्रभाव पड़ा। इसलिए अहमद को इस जिहाद (धर्मयुद्ध) का नेता चुन लिया गया। सैयद अहमद की सहायता के लिए एक परिषद् का निर्माण किया गया जिसमें सहायक के रूप में अब्दुल अजीज के दो रिश्तेदारों को नियुक्त किया गया. इसकी संस्थाएँ भारत में अनेक जगह खोली गयीं।
पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत में वहाबी का प्रभाव
इमाम बनने के बाद सैयद ने पूरे उत्तर प्रदेश का दौरा कर के इस आन्दोलन का प्रचार-प्रसार किया। इसके समर्थक बढ़ते गए। शिरात-ए-मुस्तकिन नामक एक फारसी ग्रन्थ में सैयद अहमद के विचारों को संकलित किया गया। एकेश्वरवाद और हिजरत यानी दुश्मनों को भारत से भगाने का प्रण लेकर सैयद अहमद ने एक योजना बनाई। इस योजना के अंतर्गत तीन बातों पर गौर फ़रमाया गया – (i) हमारी सेना सशस्त्र हो (ii) भारत के हर कोने में उचित नेता को चुनना (iii) जिहाद के लिए भारत में ऐसी जहग चुनना जहाँ मुस्लिम अधिक संख्या में रहते हों ताकि वहाबी आन्दोलन जोर-शोर से पूरे देश में फैले।
इसके लिए पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत को चुना गया। वहाँ कबायली इलाके में सिथाना को केंद्र बनाया गया और भारत के सभी मुस्लिम बहुल नगरों में स्थानीय कार्यालय खोले गए। Bengal Presidency के लिए कलकत्ता को चुना गया और प्रतिनिधित्व खलीफाओं को सौंपी गई।
1826 ई. से यह आन्दोलन सक्रिय हुआ। अपने 3000 समर्थकों के साथ वह पेशावर गया और वहाँ एक स्वतंत्र शासन की स्थापना की बाद में केंद्र को बदलकर सिथाना (चारसद्दा, पाकिस्तान) में स्थापित किया गया। सीमाप्रांत में शासन चलाने हेतु, अस्त्र-शस्त्र, धन, जन सीमाप्रांत पहुँचाया जाने लगा। इसके लिए बंगाल से सिथाना तक खानकाह बनाया गया जो एक गुप्त रूप से सहायता पहुँचाने का जरिया था। पश्चिमोत्तर इलाके में वहाबी आन्दोलन के समर्थकों का सिख समुदाय से संघर्ष हुआ जिसमें सैयद अहमद मारा गया।
बंगाल में वहाबी आन्दोलन
जिस समय पश्चिमोत्तर में सैयद अहमद सिखों से संघर्ष कर रहा था, उस समय बंगाल में वहाबी आन्दोलन का बहाव किसान वर्गों में जोर-शोर से हो रहा था। बंगाल में वहाबी आन्दोलन के नेता तीतू मीर थे। जमींदार द्वारा कर बढ़ाने पर वहाबी समर्थक (अधिकांशतः किसान वर्ग) इसका विरोध करते थे। जब नदिया (बंगाल) के जमींदार कृष्णराय ने लगान की राशि बढ़ाई तो तीतू मीर ने उसपर हमला कर दिया।
ऐसे कई काण्ड कई जगह हुए जहाँ जमींदारों को विरोध का सामना करना पड़ा। ऐसे में तीतू मेरे किसान वर्ग का मसीहा बन गया। एक बार तो तीतू मेरे ने कई वहाबी समर्थकों के साथ अंग्रेजी सेना द्वारा बनाए गए किले को ही नष्ट कर डाला। पर तीतू मीर इसी संघर्ष में मारा गया। उसकी मृत्यु के बाद बंगाल में वहाबी आन्दोलन कमजोर पड़ गया।
सैयद अहमद की मृत्यु के बाद वाला वहाबी आन्दोलन
ऐसा नहीं था कि सैयद अहमद की मृत्यु के बाद वहाबी आन्दोलन थम गया। यह आन्दोलन चलता ही रहा। इस आन्दोलन को सैयद अहमद के बाद जिन्दा रखने का श्रेय विलायत अली और इनायत अली को जाता है। फिर से नए केंद्र स्थापित किए गए। इस बार पटना को मुख्यालय बनाया गया। इनायत अली को बंगाल का कार्यभार दिया गया।
पंजाब और पश्चिमोत्तर प्रान्तों में वहाबी आन्दोलन के समर्थकों और अंग्रेजों के बीच कई बार मुठभेड़ हुई। अंग्रेजों ने वहाबी के केंद्र सिथाना और मुल्का को नष्ट कर दिया। अनेक समर्थक गिरफ्तार हो गए। कई लोगों पर मुकदमा चला और उन्हें काला पानी व जेल की सजा दी गई। कालांतर में पटना का भी केंद्र नष्ट कर दिया गया। सरकार के इस दमनात्मक रवैये के चलते वहाबी आन्दोलन शिथिल पड़ गया और प्रथम युद्ध के अंत तक इसने दम तोड़ दिया।
वहाबी आन्दोलन का प्रभाव और महत्त्व
वहाबी आन्दोलन की शुरुआत भले ही मुसलमान समुदाय के पुनरुत्थान के रूप में हुई हो पर बाद में इस आन्दोलन ने दिशा बदल ली। देश में मुस्लिम शासन फिर से आये, इस सोच को लेकर यह आन्दोलन चला था पर कालांतर में यह आन्दोलन मुख्यतः एक किसान आन्दोलन बन कर रह गया। जब यह किसान आन्दोलन बना तो कई हिन्दू भी इस आन्दोलन से जुड़ गए। यह सच है कि वहाबियों ने किसानों और निम्नवर्ग पर हो रहे अंग्रेजी अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ उठाई। सरकार विरोधी अभियान चलाकर वहाबियों ने 1857 ई. के विद्रोह के लिए एक वातावरण तैयार कर दिया।
इस आन्दोलन से मिली विफलता के बाद मुसलमान लोगों में एक नई विचारधारा का संचार हुआ। धार्मिक कट्टरता के स्थान पर मुसलामानों ने अब आधुनिकीकरण पर बल दिया। आधुनिक शिक्षा और मुसलमानों का भला चाहने वाले सर सैयद अहमद खाँ का चेहरा सब के सामने आया।