अढ़ाई दिन का झोपड़ा

  • निर्माण वर्ष- 1194
  • कहाँ स्थित हैं- अजमेर (राजस्थान)
  • किसने करवाया- कुतुबुद्दीन ऐबक ने।
  • पहले क्या था- सरस्वती कंठाभरण महाविद्यालय।
  • कुल स्तम्भ- 70

ढाई दिन का झोंपड़ा  का निर्माण कुतुबुद्दीन ऐबक ने वहां पर पहले से मौजूद संस्कृत महाविद्यालय को तोड़कर इसे मस्जिद का रुप दिया था। ढाई दिन का झोंपड़ा का निर्माण 1194 ईस्वी में हुआ था।

तराइन के दूसरे युद्ध में मोहम्मद गौरी और पृथ्वीराज चौहान के बीच भयंकर युद्ध हुआ। कई राजपूत राजा मोहम्मद गोरी का साथ दे रहे थे, जिसमें सबसे बड़ा नाम राजा जयचंद का था। पृथ्वीराज चौहान से लगातार 16 बार युद्ध में हार झेल चुके मोहम्मद गोरी को जब राजा जयचंद का साथ मिला तो उसने पृथ्वीराज चौहान को कैद कर लिया और अपने साथ गजनी ले गया।

तभी मोहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने इस स्थान पर निर्मित सरस्वती कंठाभरण महाविद्यालय को धराशाही कर दिया और उसके स्थान पर एक मस्जिद का निर्माण करवाया जिसे ढाई दिन का झोंपड़ा  नाम से जाना जाता है। सरस्वती कंठाभरण महाविद्यालय के बारे में जानकारी ढाई दिन के झोपड़े के मुख्य द्वार के बाएं तरफ बना संगमरमर का अभिलेख देता है।

इसमें कुल 70 स्तंभ है, अगर बात की जाए तो यह स्तंभ अलग से नहीं बनाए गए हैं जबकि उन मंदिरों के हैं जिन्हें तोड़ दिया गया था लेकिन स्तंभों को ज्यों का त्यों रहने दिया। 25 फीट ऊंचाई वाले यह स्तंभ बहुत खूबसूरत है, साथ ही इन पर बेहतरीन नक्काशी देखने को मिलती है, जोकि विदेशी लुटेरों द्वारा निर्मित नहीं की जा सकती थी।

ढाई दिन का झोंपड़ा को अंदर से देखने पर यह एक मंदिर की तरह दिखाई देता है लेकिन बाहर की तरफ नई दीवारें बनाई गई है, जिन पर कुरान की आयतें लिखी गई है।

कई इतिहासकार बताते हैं कि मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाने में ढाई दिन यानी कि मात्र 60 घंटे का समय लगा था, इसीलिए इसे ढाई दिन का झोपड़ा नाम दिया गया। जबकि इतिहासकारों का एक वर्ग मानता है कि पहले यहां पर ढाई दिन का मेला लगता था इसी वजह से इसका नाम ढाई दिन का झोंपड़ा पड़ गया।

ढाई दिन का झोंपड़ा अजमेर राजस्थान में स्थित है। इसका निर्माण मोहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने करवाया था।

बाद में 1213 ईस्वी में इल्तुतमिश द्वारा इसमें सुधार किया गया था।

सरस्वती कंठाभरण महाविद्यालय जो कि राजा विग्रहराज चौहान द्वारा बनाया गया था यह चौकोर हैं, जिसके हर किनारे पर डोम के आकार की छतरी बनी हुई थी।

जैन धर्म के अनुयायियों के अनुसार यह एक जैन तीर्थ था जिसका निर्माण सेठ वीरमदेव काला ने 660 ईस्वी में किया था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अनुसार ब्रिटिश काल में अलेक्जेंडर कनिंघम बताते हैं कि यहां पर मस्जिद में जो मेहराब ध्वस्त किए गए हैं, यह किसी मंदिर के प्रतीत होते हैं। यहां पर ऐसे 700 से अधिक मेहराब मौजूद हैं जिन पर हिंदू धर्म की जलक साफ देखने को मिलती है।

सन 1875 से यहां पर खुदाई की गई जिसमें भारतीय पुरातत्व के अनुसार ऐसी कई चीजें मिली जिनका संबंध संस्कृत और हिंदू धर्म शास्त्रों से था, जिन्हें अजमेर के म्यूजियम में रखा गया है, लेकिन आज इस स्थान को इंडो-इस्लामिक वास्तुकला का नाम दे दिया गया।

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