- जन्म – 15 अक्टूबर 1542 ई.
- शासनकाल – 1556 -1605 ई.
- मृत्यु – 29 अक्टूबर 1605 ई.
अकबर का जन्म सिंध के अमर कोट में राजपूत राणा वीरसाल के घर में हुआ । अकबर का पूरा नाम जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर था। पिता हुमायुं और माता हमीदा बानो बेगम थी।
अकबर का राज्याभिषेक बैरम खाँ की देखरेख में पंजाब के गुरूदासपुर जिले के कालानौर नामक स्थान पर 14 फरवरी 1556 ई. को मिर्जा अबुल कासिम के द्वारा हुआ था। बैरम खां को अकबर के वजीर पद पर नियुक्त किया गया
अकबर के प्रमुख अभियान
- मालवा विजय अभियान
- गोंडवाना का विजय अभियान
- चित्तौड़ पर आक्रमण
- कालिंजर पर आक्रमण
- रणथम्भोर पर आक्रमण
- जोधपुर और बीकानेर
- मेवाड़ के लिए हल्दी घाटी का युद्ध
- गुजरात पर आक्रमण
- कश्मीर पर आक्रमण
- बंगाल विजय
मालवा विजय अभियान
यहाँ के शासक बाज बहादुर को 1561 ई. में अदहम ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना ने हरा दिया। 29 मार्च, 1561 ई. को मालवा की राजधानी ‘सारंगपुर’ पर मुग़ल सेनाओं ने अधिकार कर लिया।
अकबर की पहली विजय मालवा की विजय थी। मालवा के शासक बाज बहादुर ललित कलाओं (विशेषकर नृत्य और संगीत) के शौकीन थे। वह राज्य के मामलों के प्रति उपेक्षित था और खुद को उसकी प्रतिभाशाली मालकिन रूप माटी के साथ रोमांस में लीन रखता था। मालवा को जीतने के लिए अकबर ने अधम खान को निराश किया। बाज बहादुर ने अपनी राजधानी सारंगपुर से बीस मील आगे मुगल सेना का सामना किया, लेकिन वह हार गया और वह भाग निकला।
बंगाल विजय
- 1572 ई. में दाऊद खां सिंहासन पर बैठा।
- वह एक साहसी तथा वीर युवक था।
- उसने अकबर की आधीनता स्वीकार नहीं की।
- उसे अफगान शक्ति पर पूरा विश्वास था।
गोंडवाना का विजय अभियान
- गोंड़वाना में महोबा की चंदेल रानी दुर्गावती का वास्तविक राज्य था। अबुल फजल ने उसके प्रशासन, चरित्र, वीरता की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। इस पर अकबर और कड़ा के राज्यपाल आसफ खां ने अकारण ही आक्रमण किया।
- गोंडवाना राज्य का विस्तार पूर्व में रतनपुर से लेकर पश्चिम में रायसीन तक और उत्तर में रीवा से लेकर दक्षिण की सीमाओं तक था।
- इसके शासक वीर नारायण थे लेकिन इसके वास्तविक शासक उनकी माता, रानी दुर्गावती, महोबा की एक चंदेल राजकुमारी थीं।
- दुर्गावती एक बहादुर और सफल शासक थी। उसने अकबर को कोई अपराध नहीं दिया था।
चित्तौड़ पर आक्रमण
1567 में मेवाड़ में चित्तौड़ के शासक राणा उदयसिंह पर आक्रमण किया गया तथा अंत में उस पर अधिकार कर लिया गया
चित्तोड़गढ़ की घेराबंदी (20 अक्टूबर 1567 – 23 फ़रवरी 1568) वर्ष 1567 में मेवाड़ राज्य पर मुगल साम्राज्य द्वारा किया गया सैनिक अभियान था। इसमें अकबर की सेना ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग में जयमल के नेतृत्व वाले 8000 राजपूतों और 40,000 किसानों की घेराबन्दी कर ली।
कालिंजर पर आक्रमण
बुंदेलखंड में कालिंजर का किला रीवा के राजा रामचंद्र के अधीन था। 1569 में मजनूखां ककसाल को से जीतने के लिए भेजा गया। राजा रामचंद्र ने मुगल अधीनता स्वीकार कर ली।
राजा ने बिना किसी लड़ाई के मुगलों के किले को आत्मसमर्पण कर दिया क्योंकि वह चित्तौड़ और रणथंभौर के भाग्य का पता लगाने के लिए आए थे और प्रतिरोध की निरर्थकता का एहसास कर सकते थे।
रणथम्भोर पर आक्रमण
1568 ई. में रणथम्भौर पर चौहान राजपूतों के हाड़ा वंश का राज्य था। फरवरी, 1569 मे अकबर की तोपों की मार के सम्मुख रणथम्भौर की दीवारें नहीं ठहर सकी
जोधपुर और बीकानेर पर आक्रमण
जोधपुर के राजा मालदेव का पुत्र चन्द्रसेन अकबर की शरण में आ गया था, परन्तु यह मित्रता अधिक समय नहीं चली।
मेवाड़ के लिए हल्दीघाटी का युद्ध
अकबर ने अपनी कुशल नीति के द्वारा अधिकांश राजपूतों को अपने पक्ष में कर लिया था। अब वह राणा की स्वंतत्रता, प्रमुखता, श्रेष्ठता को कैसे सहन कर सकता था। अतः उसने सोचा कि राणा स्वंय नहीं झुका तो उसे आक्रमण से झुकाना चाहिये।
गुजरात पर आक्रमण
मुजफ्फरशाह के एक सरदार इत्माद खां ने अकबर को गुजरात में हस्तक्षेप करने को प्रोत्साहित किया अतः अकबर ने 1572 ई. में आक्रमण किया।
कश्मीर पर आक्रमण
अकबर ने कश्मीर पर आक्रमण करने के लिऐ राजा भगवानदास को भेजा। जिस समय अकबर ने कश्मीर पर आक्रमण किया उस समय कश्मीर का राजा युसुफ खां था जो की अत्यन्त अत्याचारी और धर्मान्ध था। भगवान दास युसुफ खां को पराजित कर कश्मीर को काबूल प्रान्त का भाग बनाकर अपने अधीन कर लिया।
कश्मीर के तत्कालीन शासक युसुफ खान ने 1581 ई. में अपने बेटों को अकबर पर इंतजार करने के लिए भेजा था, लेकिन खुद ने अदालत में अपनी उपस्थिति से बचा लिया था।
पानीपत का दूसरा युद्ध (5 नवंबर, 1556)
पानीपत का दूसरा युद्ध अकबर के वजीर व संरक्षक बैरम खां एवं मोहम्मद आदिल शाह सूर के वजीर हेमू के बीच हुआ। इसमें हेमू पराजित हुआ एवं मारा गया।
हेमू के पास अकबर से कहीं अधिक बड़ी सेना तथा 1,500 हाथी थे।
प्रारंभ में मुगल सेना के मुकाबले में हेमू को सफलता प्राप्त हुई, लेकिन दुर्भाग्य से एक तीर हेमू की आंख में घुस गया और उसने युद्ध का पासा पलट दिया। बाद में हेमू को गिरफ्तार कर उसकी हत्या कर दी गई ।
तिलवाडा का युद्ध
अकबर का संरक्षक बैरम खां अकबर के वयस्क होने के बाद भी शासन की बागडोर स्वंय अपने पास रखना चाहता था इसी कारण बैरम खां ने अकबर के खिलाफ विद्रोह कर दिया। दोनों के बीच तिलवाडा नामक स्थान पर युद्ध हुआ जिसमें बैरम खां पराजित हुआ। अकबर ने बैरम की विधवा से विवाह कर लिया एवं बैरम का पुत्र अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना था।
- 1564 में अकबर ने उज्जबेगों के विद्रोह को दबाया तथा गोण्डवाना जीता। गोण्डवाना के शासक उस समय वीर नारायण थे व उनकी संरक्षिका दुर्गावती थी
- 1568 में अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया उस समय चित्तौड़ पर महाराणा उदय सिंह का शासन था। इस युद्ध में चित्तौड़ के जयमल व पत्ता शहीद हुए।
- 1570 में राजस्थान के मारवाड़ जिसका शासक चन्द्र सेन, जैसलमेर जिसका शासक हरराय व बीकिनेर जिसका शासक कल्याण मल था को अपने साम्राज्य का हिस्सा बनाया।
- 1571/72 में अकबर ने गुजरात के शासक मुजफ्फर खां द्वितीय के विरुद्ध अपना पहला अभियान भेजा। उसी समय उसने प्रथम बार समुद्र दर्शन किए।
- 1573 में उसने गुजरात के लिए अपना दूसरा अभियान भेजा।
- 1576 में दाउद को हराकर उत्तर भारत में अंतिम अफगान शासन का अंत किया।
- इसी वर्ष महाराणा प्रताप के साथ हल्दीघाटी का इतिहास प्रसिद्ध युद्ध हुआ अकबर की सेना का नेतृत्व मान सिंह ने किया।
- 1581 में काबुल जीतकर उसका गवर्नर बख्तुन्निसा को बनाया।
- 1586 में युसुफ खां व याकूब खां से कश्मीर जीता।
- 1590 में उडीसा को अपने साम्राज्य का हिस्सा बनाया उस समय वहां का शासक निसार खां था।
- 1591 में जानी बेग से सिंध व अली खां से खान देश लिया।
- 1597-1600 के मध्य दक्षिण अभियान चलाया तथा अहमदनगर पर विजय प्राप्त की। अहमदनगर में उस समय चांद बीबी ने डटकर अकबर की सेना का मुकाबला किया। शासक बहादुर निजाम शाह था।
- 1601 में असीरगढ के शासक मीर बहादुर पर विजय प्राप्त की।
- यह अकबर की अंतिम विजय थी।
पर्दाशासन
पर्दाशासन की घटना अकबर से जुड़ी हुई है। 1560-62 ई. के बीच अकबर शासन में अकबर की परिवार की महिलाएं प्रभावशाली रही थी। इसी कारण इस काल को पर्दाशासन कहा गया है।
अकबर का राजत्व सिद्धांत
- अकबर के राजत्व सिद्धांत के अनुसार राजा के पद को दैवीय देन माना गया तथा राजा को दैवीय प्रकाश माना जिसके आगे सबका झुकना अनिवार्य था।
- अकबर का राजत्व उदार निरंकुशता पर आधारित था।
- राजनीतिक व्यवस्था पर कट्टरवाद का प्रभाव कम था।
- शासक जनहित संबंधी अपने कत्र्तव्य के प्रति सजग था।
- प्रजा के लिए पितृवत प्रेम, सत्य-असत्य का विवेक आदि शामिल था।
अकबर द्वारा साम्राज्य विस्तार
मालवा अभियान (1561 ई.)
- साम्राज्य विस्तार के क्रम में अकबर का पहला आक्रमण मालवा के शासक बाज बहादुर के ऊपर था।
- इस अभियान में मुगल सेना का नेतृत्व अधम खां एवं पीर मुहम्मद खां ने किया।
- मालवा का शासक बाज बहादुर पराजित हुआ एवं भाग कर बुरहानपुर में शरण ली
- बाज बहादुर की परम सुन्दरी पत्नि रानी रूपमती ने अपने सम्मान की रक्षा के उद्देश्य से मृत्यु को अपनाया।
गढ़ कटंगा अभियान (1564 ई.)
गढ़ कटंगा, गोंडवाना प्रदेश था जो जबलपुर के पास का क्षेत्र था। यहां के राजा की मृत्यु के बाद उसकी विधवा पत्नी रानी दुर्गावती राज कर रही थी। अकबर साम्राज्य में कडा (इलाहाबाद) के सुबेदार आसफ खां ने दमोह के पास रानी दुर्गावती को पराजित किया।
पराजित होने के बाद रानी दुर्गावती ने बंदी बनाए जाने के भय से स्वयं को छुरा घोंप कर आत्महत्या कर ली। गढ़ कटंगा पर भी अकबर का राज्य स्थापित हो गया।
राजस्थान अभियान
अकबर की राजपूत नीति : यह नीति दमन, सहयोग एवं समझौते पर आधारित थी जो अलग अलग तीन चरणों में विभाजित थी। अकबर की राजपूत नीति का उद्देश्य साम्राज्य के स्थायित्व के लिए राजपूतों की सहानुभूति प्राप्त करना था।
प्रथम चरण, 1572 तक था इस समय दमन की नीति को अपना कर राजपूतों पर आधिपत्य स्थापित करने पर बल था। द्वितीय चरण 1572-78 तक था इस चरण में राजपूतों से माम्राज्य विस्तार में सहयोग प्राप्त करने की नीति प्रभावी थी। इस चरण में राजपूत शक्तियों के बीच शक्ति संतुलन स्थापित करना भी उद्देश्य शामिल था। तृतीय चरण 1578 के बाद का काल था। इस नीति में हिन्दु एवं मुस्लिम धर्म के कारण उत्पन्न हुए विरोधों का निराकरण वैवाहिक संबंधों द्वारा किए जाने की झलक मिलती है।
राजस्थान पर अभियान के कारण
- गुजरात और मालवा तक पहुंचने वाला मार्ग राजस्थान से होेकर जाता था। इन दोनों प्रदेशों पर नियंत्रण के लिए राजस्थान पर काबू रखना आवश्यक था।
- राणा उदयसिंह ने मालवा के पदच्युत शासक बाज बहादुर और संभल से भागने वाले मिर्जा को शरण देकर अकबर को ठेस पहुंचायी।
- साम्राज्य के विस्तार एवं स्थायित्व के लिए राजपूतों का दमन अथवा मित्रता आवश्यक था। ये सलाह हुमायुं ने अकबर को दी थी।
- राजस्थान पर मुगलों के आक्रमण के पीछे न तो प्रादेशिक विस्तार की इच्छा थी और न ही धन प्राप्ति का लोभ था। इसका मुख्य उद्देश्य मुगल साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान करना एवं अपने शत्रु को खतरा उत्पन्न करने से पहले ही उसकी शक्ति समाप्त करना था अथवा मित्रता के द्वारा उनकी शक्ति का उपयोग करना था।
घटनाक्रम
- सन् 1562 ई. में अकबर की अधीनता स्वीकार करने वाला कच्छवाह शासक भारमल (आमेर) राजस्थान का पहला राजपूत शासक था।
- सन् 1562 ई. में ही मेडता पर अधिकार किया गया।
- सन् 1568 ई. में लगभग 4 महीने की घेराबंदी के बाद मेवाड का विनाश किया, मेवाड़ ने आधिपत्य स्वीकार नहीं किया।
- सन् 1569 ई. में रणथम्भौर पर अधिकार किया।
- सन् 1570 ई. में मारवाड़, बीकानेर एवं जैसलमेर के राजाओं ने मुगल आधिपत्य स्वीकार कर लिया।
- क्षेत्रीय स्वतंत्र राज्यों में केवल मेवाड़ ही स्वतंत्र था जिसने अकबर का आधिपत्य स्वीकार नहीं किया।
हल्दीघाटी का युद्ध
1570 ई. तक मेवाड़ के अलावा राजस्थान के सभी राजपूत राजाओं ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। 1568 ई. में मेवाड़ को अधीन करने के लिए अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया 4 महीने की घेराबन्दी के बाद भी जब चित्तौड़ का राजा उदयसिंह बाहर नहीं आया तो अकबर ने कत्लेआम का आदेश दिया इससे 30,000 से अधिक लोग मारे गये। किले में रसद की कमी हो गयी। राजा उदयसिंह किले की सुरक्षा जयमल और फत्ता के हाथों में सौंपकर गुप्त रास्ते से परिवार के साथ पास वाली पहाड़ी में चले गये परन्तु अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की।
1572 ई. में महाराणा प्रताप का राज्यारोहण हुआ। महाराणा ने मेवाड़ के कुछ हिस्सों पर अधिकार कर लिया। अकबर ने कई दूत मण्डली महाराणा प्रताप के दरबार में भेजी। अकबर का स्पष्ट आदेश था कि महाराणा प्रताप अकबर की अधीनता स्वीकार कर ले परन्तु महाराणा ने दूतों के साथ स्पष्ट रूप में अवमानना संदेश भेजा अब अकबर के पास शक्ति प्रयोग के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं बचा था।
अकबर द्वारा भेजी गयी दूत मण्डली का क्रम
- जलाल खां कूरची – राजा मानसिंह – भगवंत दास – टोडर मल।
- महाराणा प्रताप ने भगवंत दास के साथ अपने पुत्र अमर सिंह को अकबर के दरबार में भेजा था परन्तु अकबर ने महाराणा को सशरीर दरबार में उपस्थित होकर अधीनता स्वीकार करने की शर्त रखी इस कारण यह वार्ता विफल रही।
- सन् 1576 ई. में मुगल सेना राजा मानसिंह के नेतृत्व में एवं महारणा प्रताप तथा महाराणा के साथ हकीम खां सूर की अफगान सेना हल्दीघाटी नामक स्थल पर आमने-सामने हुई। महाराणा एवं अफगानी सेना मुगल सेना का मुकाबला नहीं कर पायी। यह युद्ध अनिर्णीत रहा। महाराणा ने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। राणा बचकर पहाड़ियों में चले गये।
- अकबर अजमेर लौट आया। मुगलों ने गोगुन्दा, उदयपुर, कुंभलगढ़ पर अधिकार कर लिया। राणा ने कुछ समय बाद चावण्ड को नई राजधानी बनाया एवं गोरिल्ला पद्धति से मुगलों के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखी।
अकबर का गुजरात अभियान
सन् 1572 ई. में अंत में अकबर गुजरात पहुंचा। सबसे पहले अहमदाबाद पर कब्जा किया फिर दक्षिण गुजरता एवं सूरत पर कब्जा किया। अकबर ने गुजरात में खान ए आजम अजीज कोका को सुबेदार नियुक्त किया।
अकबर का बंगाल अभियान
- इस्लाम शाह की मृत्यु के बाद बंगाल स्वतंत्र हो चुका था। सत्ता की बागडोर सुलेमान कुर्रानी के हाथ में थी।
- अकबर के पूर्वी अभियान का लक्ष्य ‘बिहार को फतह करना था’ परन्तु कार्यवाही का तात्कालिक कारण दाउद खां द्वारा स्वतंत्रता की घोषणा थी।
- दाउद खां को पराजित कर अकबर ने मुनिम खां को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया एवं मुनिम खां की मृत्यु के बाद हुसैन-कुली खान-ए-जहां को बंगाल का नया सुबेदार नियुक्त किया।
अन्य अभियान
- 1585 ई. में काबुल के शासक मिर्जा हकीम की मृत्यु के बाद अकबर ने मानसिंह को काबुल पर अधिकार करने के लिए भेजा तथा मानसिंह को काबुल का सूबेदार बना दिया।
- सन् 1586 ई. में अकबर ने कश्मीर को जीतने का निश्चय किया वहां के शासक याकूब खां ने अकबर की अधीनता स्वीकर कर ली थी परन्तु सशरीर अकबर के सामने उपस्थित होकर समर्पण करने से मना कर दिया था।
- कश्मीर पर अधिकार के बाद सिंध, लद्दाख एवं ब्लूचिस्तान पर अधिकार कर लिया।
- अकबर की अंतिम कार्यवाही कन्धार को मुगल साम्राज्य में शामिल करना था।
- अक्टूबर 1605 ई. में अकबर ने बीमार होने के कारण 21 अक्टूबर 1605 को जहांगीर (सलीम) को उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। 25-26 अक्टूबर 1605 ई. को अकबर की मृत्यु हो गई।
- अकबर का मकबरा आगरा से 10 मील की दूरी पर सिकन्दरा में है। इस मकबरे का निर्माण जहांगीर के शासन काल में करवाया गया।
अकबर के नवरत्न –
- बीरबल – इनका जन्म काल्पी में हुआ था। बचपन का नाम महेशदास था। आमेर के राजा भारमल के पुत्र भगवान दास ने इन्हें अकबर तक पहुंचाया था। अकबर ने इन्हें कविराज एवं राजा की उपाधि तथा 2000 का मनसब प्रदान किया। ये अकबर के न्याय विभाग के सर्वोच्च अधिकार थे। दीन ए इलाही धर्म स्वीकार करने वाले एकमात्र हिन्दु राजा बीरबल थे। इनकी मृत्यु युसुफजई कबीले के साथ होने वाले संघर्ष में हुई।
- अबुल फजल – इन्होंने आइन ए अकबरी, अकबरनामा की रचना की। अबुल फजल दीन ए इलाही धर्म के मुख्य पुरोहित थे। इनकी हत्या शहजादा सलीम ने करवाई।
- तानसेन – ये ग्वालियर के थे। अकबर ने इन्हें कण्ठा भरण वाणी विलास की उपाधि दी। इनके समय ध्रुपद गायन शैली का विकास हुआ। इन्होंने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया था।
- अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना – ये बैरम खां का पुत्र था। इनका पालन पोषण स्वयं अकबर ने किया था। इन्होंने बाबरनामा का फारसी में अनुवाद किया था।
- मानसिंह – ये आमेर के राजा भारमल के पौत्र तथा भगवान दास के पुत्र थे। अकबर के मेवाड़ (हल्दीघाटी), काबुल, बंगाल एवं बिहार के अभियानों में मुख्य भुमिका निभायी।
- टोडरमल – इसका जन्म अवध के सीतापुर में हुआ। अकबर से पहले ये शेरशाह सूरी के यहां नौकरी करते थे। अकबर के शासन में दहशाला (भूमि सुधार) की व्यवस्था दी। इन्होंने दीन-ए-इलाही धर्म को स्वीकार नहीं किया था।
- फैजी – अकबर ने इन्हें राजकवि के पद पर आसीन किया था। इन्होंने गणित की प्रसिद्ध पुस्तक लीलावती का फारसी में अनुवाद किया।
- हकीम हुमाम – ये अकबर के रसोईघर का कार्य संभालते थे।
- मुल्ला-दो-प्याजा – ये अरब के रहने वाले थे। ये अपनी बुद्धिमानी व वाकपटुता के कारण नवरत्नों में शामिल थे।
अकबर के शासनकाल की प्रमुख घटनाएं –
समय | घटनाएं |
1562 ई. | दास प्रथा का अंत |
1563 ई. | तीर्थ यात्रा कर समाप्त |
1564 ई. | जजिया कर समाप्त |
1567 ई. | मनसबदारी व्यवस्था प्रारंभ |
1571 ई. | फतेहपुर सीकरी की स्थापना |
1575 ई. | इबादत खाने का निर्माण |
1579 ई. | दहसाला प्रणाली की घोषणा |
1580 ई. | साम्राज्य को सूबों में विभाजित किया(दक्षिण विजय के बाद सूबों की संख्या 15 हो गयी) |
1582 ई. | दहसाला प्रणाली लागू एवं दीन ए इलाही की घोषणा |
1583 ई. | इलाही संवत् की स्थापना |
अकबर की धार्मिक नीति
- अकबर की धार्मिक नीति का मुल उद्देश्य सार्व भौमिक सहिष्णुता था।
- अकबर ने इस्लामी सिद्धांत के स्थान पर सुलहकुल की नीति अपनायी।
- अकबर के धार्मिक विचारों पर अब्दुल लतीफ की विचारधारा का प्रभाव था।
- अकबर ने इस्लाम के मूल तत्वों को समझने के लिए इबादत खाना का निर्माण किया।
- उलेमाओं से धार्मिक विषयों पर मतभेद समाप्त करने के लिए महजर घोषणा पत्र जारी करवाया।
- सभी धर्मों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए अकबर ने दीन-ए-इलाही धर्म की स्थापना की।
सुलह-ए-कुल नीति
सुलह-ए-कुल का अर्थ सभी धर्मों को महत्व देना, आदर करना एवं धार्मिक सहिष्णुता से है। सूफभ् संतों ने सुलह-ए-कुल नीति पर जोर दिया था। यह धार्मिक कट्टरता को कम करती है।
मजहर घोषणा पत्र
मजहर घोषणा पत्र वह दस्तावेज था जो समस्त धार्मिक मामलों में अकबर को धार्मिक मामलों का अंतिम व्याख्याकार घोषित करता था। इस पत्र से अकबर ने ‘सुल्तान ए आदिल’ या ‘इमाम ए आदिल’ की उपाधि धारण की। इस दस्तावेज को लाने का उद्देश्य उलेमाओं के विरोध को कम करना एवं राजत्व की गरिमा को बढ़ाना था। इसका प्रारूप शेख मुबारक ने तैयार किया था।
तौहीद-ए-इलाही/ दीन-ए-इलाही
सरकार की बागडोर संभालते ही अकबर धार्मिक मामलों में उदार रहा 1563 ई. में हिन्दुओं से वसूला जाने वाला तीर्थ कर समाप्त कर दिया। इसी संदर्भ में जजिया को समाप्त कर दिया। अकबर ने राज-काज में उदार धार्मिक नीति का अनुसरण किया परन्तु व्यक्तिगत आचरण में वह एक रूढ़िवादी मुसलमान था।
धार्मिक मामलों में अकबर बचपन से जिज्ञासु था। अपनी इसी जिज्ञासा के कारण अकबर ने इबादत खाना (फतेहपुर सीकरी) खोला एवं सभी धर्मों के मूल सिद्धांतों को समझने की कोशिश की। आरंभ में इबादत खाने में केवल मुसलमान भाग ले सकते थे एवं चर्चा का दिन बृहस्पतिवार निश्चित था। 1578 ई. के बाद अकबर ने इबादत खाने के दरवाजे हिन्दु, जैन, बौद्ध, यहूदी, पारसी एवं ईसाइयों के लिए भी खोल दिए। परन्तु इबादत खाने का जो उद्देश्य था ‘सत्य की खोज’ के स्थान पर अपने-अपने धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने लगे अतः अकबर ने 1582 में इबादत खाने को बंद कर दिया।
इबादत खाने की बहसों को निरर्थक नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसके दो महत्वपूर्ण परिणाम निकले –
- बहसों से अकबर को विश्वास हो गया कि सभी धर्मों में सत्य के तत्व हैं और ये सभी मनुष्य को एक ही परम यथार्थ तक ले जाते हैं इन विचारों से ही अकबर के मन में ‘सुलह-ए-कुल’ की अवधारणा का अंकुर फूटा एवं दीन-ए-इलाही धर्म का आधार बना।
- इन बहसों से दरबारी आलिमों के विचारों की संकीर्णता, धर्मांधता अकबर के सामने आ गयी और ऐसे लोगों के साथ अकबर का संबंध विच्छेद हुआ तथा मजहर की नीति का आरंभ भी इन्हीं बहसों का परिणाम था।
इस प्रकार इबादतखाने की बहसों ने एक नए उदार और सहिष्णु राज्य के उदय में तथा दी ए इलाही धर्म की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
दीन ए इलाही
- कई वर्षां की इबादत खाने की चर्चाओं को सुनने एवं विभिन्न धर्मों के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को समझने के प्रतिफल के रूप में अकबर द्वारा दीन ए इलाही धर्म की स्थापना की गयी।
- दीन ए इलाही अकबर की धार्मिक सहिष्णुता और उदार लोकेश्वरवाद का प्रतीक था। जिसमें विभिन्न धर्मों के अच्छे सिद्धांतों का समावेश किया गया।
- अकबर का उद्देश्य एक ऐसे राष्ट्रीय धर्म का प्रवर्तन करना था जिसे हिन्दु और मुसलमान दोनों स्वीकार कर सकें। यह एकेश्वरवाद पर आधारित सहिष्णुता का सन्देश वाहक था।
- दीन-ए-इलाही धर्म में जबरन धर्मांतरण का कोई स्थान नहीं था।
दीन-ए-इलाही के सिद्धांत
- सम्राट को अपना आध्यात्मिक गुरू मानना।
- यह धर्म एकेश्वरवाद में विश्वास करता था।
- दानशीलता।
- सांसारिक इच्छा का परित्याग।
- शाकाहारी भोजन, शिकारियों एवं मछुआरों के साथ भोजन न करना।
- विशुद्ध नैतिक जीवन व्यतीत करना।
- अल्पायु, बांझ व गर्भवती स्त्रियों से शारीरिक संबंध निषेध।
- चहार-गाना-ए-इख्लाश – ये दीन-ए-इलाही में दीक्षा ग्रहण करने के चार चरण थे – जमीन, सम्पत्ति, सम्मान एवं धर्म।
- विंसेट स्मिथ के अनुसार – ‘दीन ए इलाही अकबर की भूल का स्मारक था बुद्धिमानी का नहीं।’
इबादत खाने में आमंत्रित धर्माचार्य
- हिन्दु: देवी एवं पुरूषोत्तम।
- जैन: हरिविजय सूरी, जिन चन्द्र सूरी, विजय सेन सूरी, एवं शांति चन्द्र।
- पारसी: दस्तूर महर जी राणा।
- ईसाई: एकाबीबा और मोंसेरात।