- संस्थापक – दंतिदुर्ग (जिसे दन्तिवर्मन या दन्तिदुर्ग द्वितीय के नाम से भी जाना जाता है)
- शासनकाल – 735-982 ई.
राष्ट्रकूट (735-982) दक्षिण भारत, मध्य भारत और उत्तरी भारत के एक बड़े भूभाग पर राज्य करने वाला राजवंश था। इनका शासनकाल लगभग छठी से तेरहवीं शताब्दी के मध्य था। इस काल में उन्होंने परस्पर घनिष्ठ परन्तु स्वतंत्र जातियों के रूप में शासन किया, उनके ज्ञात प्राचीनतम शिलालेखों में सातवीं शताब्दी का ‘राष्ट्रकूट’ ताम्रपत्र मुख्य है, जिसमे उल्लिखित है की, ‘मालवा प्रान्त‘ के मानपुर में उनका साम्राज्य था (जो कि आज मध्य प्रदेश राज्य में है), इसी काल की अन्य ‘राष्ट्रकूट‘ जातियों में ‘अचलपुर'(जो आधुनिक समय में महारास्ट्र में स्थित एलिच्पुर है), के शासक तथा ‘कन्नौज’ के शासक भी सम्मिलित थे। इनके मूलस्थान तथा मूल के बारे में कई भ्रांतियां प्रचलित है।
एलिच्पुर में शासन करने वाले ‘राष्ट्रकूट’ ‘बादामी चालुक्यों’ के उपनिवेश के रूप में स्थापित हुए थे लेकिन ‘दान्तिदुर्ग’ के नेतृत्व में उन्होंने चालुक्य शासक ‘कीर्तिवर्मन द्वितीय’ को वहाँ से हटा दिया तथा आधुनिक ‘कर्णाटक’ प्रान्त के ‘गुलबर्ग’ को अपना मुख्य स्थान बनाया। यह जाति बाद में ‘मान्यखेत के राष्ट्रकूटों ‘ के नाम से विख्यात हो गई, जो ‘दक्षिण भारत’ में 753 ईसवी में सत्ता में आई, इसी समय पर बंगाल का ‘पाल साम्राज्य’ एवं ‘गुजरात के प्रतिहार साम्राज्य’ ‘भारतीय उपमहाद्वीप’ के पूर्व और उत्तरपश्चिम भूभाग पर तेजी से सत्ता में आ रहे थे
उत्पति
दक्षिण भारत एवं गुजरात में मिले 75 शिलालेख 8 शिलालेख पर इनके वंश के बारे प्रकाश डालता है कि राष्ट्रकूट अपने आपको सात्यकी जो यदुवंशी था महाभारत में नारायणी सेना के प्रमुख सात सेनापतियों में से एक था उसी के वंश का राष्ट्रकुट है विद्वान एवं इतिहासकार समर्थन करते हैं कि राष्ट्रकूट यदुवंशी क्षत्रिय है 860 ई. में उत्कीर्ण एक शिलालेख में बताया गया है कि राष्ट्रकुट शासक दन्तिदुर्ग का जन्म यदुवंशी सात्यकी के वंश में हुआ था
प्रशासन
ये संभवत: मूल रूप से द्रविड़ किसान थे, जो लाततापुर (लातूर, उसमानवाद के निकट) के शाही परिवार के थे। ये कन्नड भाषा बोलते थे, लेकिन उन्हें उत्तर-डाककनी भाषा की जानकारी भी थी। अपने शत्रु चालुक्य वंश को पराजित करने वाले राष्ट्रकूट वंश के शासन काल में ही दक्कन साम्राज्य भारत की दूसरी बड़ी राजनीतिक इकाई बन गया, जो मालवा से कांची तक फैला हुआ था। इस काल में राष्ट्रकूटों के महत्व का इस तथ्य से पता चलता है कि एक मुस्लिम यात्री ने यहाँ के राजा को दुनिया के चार महान शासकों में से एक बताया (अन्य शासक खलीफा तथा बाइजंतीया और चीन के सम्राट थे)।
कला और संस्कृति
कई राष्ट्रकूट राजा अध्ययन और कला के प्रति समर्पित थे। दूसरे राजा, कृष्ण प्रथम (लगभग 756 से 773) ने एलोरा में चट्टान को काटकर कैलाश मंदिर बनवाया। इस राजवंश का प्रसिद्ध शासक अमोघवर्ष प्रथम ने, जिनहोने लगभग 814 से 878 तक शासन किया, सबसे पुरानी ज्ञात कन्नड़ कविता कविराजमार्ग के कुछ खंडों की रचना की थी। उनके शासन काल में जैन गणितज्ञों और विद्वानों ने ‘कन्नड’ व ‘संस्कृत’ भाषाओं के साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनी वास्तुकला ‘द्रविणन शैली’ में आज भी मील का पत्थर मानी जाती है, जिसका एक प्रसिद्ध उदाहरण ‘एल्लोरा‘ का ‘कैलाशनाथ मन्दिर‘ है। अन्य महत्वपूर्ण योगदानों में ‘महाराष्ट्र’ में स्थित ‘एलीफेंटा गुफाओं’ की मूर्तिकला तथा ‘कर्णाटक’ के ‘पताद्क्कल’ में स्थित ‘काशी विश्वनाथ’ और ‘जैन मन्दिर’ आदि आते हैं, यही नहीं यह सभी ‘यूनेस्को’ की वर्ल्ड हेरिटेज साईट में भी शामिल हैं।
आर्थिक परिदृश्य
इस वंश के कई राजा युद्ध कला में पारंगत थे। ध्रुव प्रथम ने गंगवादी (मैसूर) के गंगवंश के राजाओं को पराजित किया, कांची (कांचीपुरम) के पल्लवों से लोहा लिया और बंगाल के राजा तथा काननोज पर दावा करने वाले प्रतिहार शासक को पराजित किया। कृष्ण द्वितीय ने, जो 878 में सिंहासन पर बैठे, फिर से गुजरात पर कब्जा कर लिया, जो अमोघवर्ष प्रथम के हाथों से छिन गया था। लेकिन वे वेंगी पर फिर से अधिकार करने में असफल रहे। उनके पौत्र इंद्र तृतीय ने, जो 914 में सत्तारूढ़ हुये। कन्नौज पर कब्जा करके राष्ट्रकूट शक्ति को अपने चरम पर पहुंचा दिया। कृष्ण तृतीय ने उत्तर के अपने अभियानों (लगभग 940) से इसका और विस्तार किया तथा कांची और तमिल अधिकार वाले मैदानी क्षेत्र (948-966/967) पर कब्जा कर लिया।